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Story of king Prithu in detail

Story of king Prithu in short

PRITHU(EXPANSION OF CONSCIOUSNESS)

-         Radha Gupta

In the fourth chapter/skandha of Shrimad Bhaagawata Mahaapuraana, there is a story of king Prithu. Prithu means - the expansion of consciousness; therefore the story describes the methods of acquisition of this expansion.

     Every human being possesses a mind – thought power. In a long journey of rebirth and death, this mind has been attached with many wrong beliefs. The first and strongest belief is our thought of being a body and not a soul. This wrong belief creates wrong perception due to which a person thinks and feels wrongly. His attitude also becomes wrong and that reflects in all his actions. The repetition of actions cultivates habit and this habit makes his destiny as sorrow.

     To get rid of this destiny – sorrows, it is necessary and important to change our perception of being a body, not a soul. The story describes a threefold path for this purpose. First of all, a person should acquire knowledge. The power of knowledge will kill this body perception and a person will start thinking himself as a soul, not a body. This first path has been symbolized as the killing of king Vena by the loud roar of Rishis.

     But this changed perception remains only on the gross and outer layer of mind, the subtle and inner layers remain the same. As the body consciousness is spreading everywhere in our thoughts, feelings, attitude, actions and habit etc.,  it is very important to explore all these fields . This has been symbolized as the churning of ‘uuru’(thigh) of dead Vena. This exploration throws out all the impurities or negativity born from the body perception.

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First published : 8 - 2-2009 AD(Maagha shukla chaturdashi, Vikram samvat 2067)

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राजा पृथु की कथा का रहस्यात्मक विवेचन

- राधा गुप्ता

कथा का संक्षिप्त स्वरूप

राजा अङ्ग और उनकी पत्नी सुनीथा से वेन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । वेन के दुराचारों से पीडित होकर राजा अङ्ग एक दिन चुपचाप राजमहल से निकल गए और ढूंढने पर भी नहीं मिले । रिक्त सिंहासन पर वेन को बैठाया गया परन्तु वेन के अधर्मयुक्त आचरण से क्रुद्ध हुए ऋषियों ने एक दिन अपनी हुंकार मात्र से वेन को मार डाला । सुनीथा वेन के शव की रक्षा करती रही । सिंहासन फिर रिक्त हो गया था, अतः शत्रुओं के आक्रमण से नगर की रक्षा करने के लिए ऋषियों ने मृत वेन के ऊरु/उरु का मन्थन किया जिससे एक काला बौना पुरुष प्रकट हुआ । इस पुरुष ने वेन के सभी पापों को अपने ऊपर ले लिया । तदुपरान्त ऋषियों ने मृत वेन के दक्षिण कर का मन्थन किया, जिससे पृथु का आविर्भाव हुआ । पृथु श्री हरि के अंशावतार ही थे, अतः ऋषियों ने राजा के पद पर पृथु का अभिषेक कर दिया । राज्याभिषेक के अवसर पर सभी देवताओं ने राजा पृथु को नाना उपहार समर्पित किए तथा पृथु के मना करने पर भी मुनियों के कहने से बन्दीजनों ने पृथु का गुणगान किया ।

          पृथु के राज्याधिरूढ होते ही प्रजा ने राजा से क्षुधा पूर्ति हेतु अन्न की याचना की । पृथु अन्नाभाव का कारण समझ गए और अन्न को अपने गर्भ में ही छिपा लेने वाली पृथ्वी पर अत्यन्त क्रुद्ध हुए । भयभीत हुई पृथ्वी ने राजा से अभय की याचना की और अन्न को छिपाने का समस्त हेतु बतलाते हुए अन्न - प्राप्ति हेतु राजा से समुचित उपाय का अवलम्बन लेने की प्रार्थना की । पृथ्वी ने गौ का रूप धारण किया और पृथ्वी द्वारा निर्दिष्ट उपाय का आश्रय लेकर राजा पृथु ने स्वायम्भुव मनु को बछडा बनाकर पृथ्वी रूपी गाय से अपने ही हाथ में समस्त धान्य रूपी दुग्ध को दुह लिया । बाद में अन्य विज्ञजनों ने भी पृथु के आधीन हुई वसुन्धरा रूप गौ से अपने - अपने वत्स बनाकर अपने - अपने पात्रों में अभीष्ट दुग्ध का दोहन किया । इसके साथ ही पृथ्वी की इच्छानुसार राजा पृथु ने उसे समतल कर दिया, जिससे इन्द्र का बरसाया हुआ जल बहने न पाए और पृथ्वी आर्द्र बनी रहे । पृथु का पृथ्वी के प्रति पुत्रीवत् स्नेह हो गया ।

          पृथु को अर्चि नामक पत्नी से विजिताश्व, हर्यक्ष, धूम्रकेश, वृक तथा द्रविण नामक पांच पुत्र प्राप्त हुए । विजिताश्व की सहायता से पृथु अपने सौवें अश्वमेध यज्ञ को भी सम्पन्न करने में समर्थ थे । विजिताश्व ने इन्द्र से अन्तर्धान होने की शक्ति प्राप्त की थी, इसलिए उन्हें अन्तर्धान भी कहते थे । अन्तर्धान को शिखण्डिनी नामक पत्नी से पावक, पवमान तथा शुचि नामक तीन पुत्र तथा नभस्वती नाम की पत्नी से हविर्धान नामक एक पुत्र प्राप्त हुआ । हविर्धान के पुत्र बर्हिषद् थे, जो प्राचीनबर्हि नाम से प्रसिद्ध हुए । प्राचीनबर्हि ने समुद्र - कन्या शतद्रुति से विवाह किया जिससे उन्हें प्रचेता नामक दस पुत्र प्राप्त हुए । पिता ने प्रचेताओं को सन्तान उत्पन्न करने की आज्ञा दी । अतः प्रचेताओं ने सन्तान उत्पत्ति हेतु तप करने के लिए समुद्र में प्रवेश किया । तभी उन्हें महादेव के दर्शन हुए, जिनसे प्राप्त रुद्रस्तोत्र द्वारा प्रचेताओं ने श्रीहरि का सान्निध्य प्राप्त कर लिया ।

          श्रीहरि प्रचेताओं को कण्डु ऋषि तथा प्रम्लोचा अप्सरा से उत्पन्न हुई एवं वृक्षों द्वारा पालित - पोषित मारिषा नामक कन्या से विवाह करके सन्तान उत्पन्न करने का परामर्श देकर परम धाम को चले गए । प्रचेताओं ने समुद्र के जल से बाहर निकलकर देखा कि पृथ्वी ऊंचे - ऊंचे वृक्षों से ढंक गई है, अतः उन्होंने क्रोधपूर्वक वृक्षों को भस्म करना प्रारम्भ कर दिया परन्तु ब्रह्मा जी के समझाने से वे शान्त हो गए । ब्रह्मा जी के कहने पर वृक्षों ने मारिषा नामक कन्या प्रचेताओं को समर्पित कर दी । मारिषा से विवाह करके प्रचेताओं ने दक्ष नामक पुत्र को उत्पन्न किया । ये दक्ष ब्रह्मा जी के वही पुत्र थे जिन्होंने पहले महादेव जी की अवज्ञा करने के कारण अपना शरीर त्यागा था ।

कथा का निहितार्थ

          कथा का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक मनुष्य के पास जो मन नामक तत्त्व है, वह मन जन्मों - जन्मों में ले जाई गई एक प्रबल मान्यता से युक्त हो गया है । यह प्रबल मान्यता है - स्वयं को देह - स्वरूप मान लेने की, अर्थात् मनुष्य यह मानने लगा है कि मैं देह हूं । मन में उपर्युक्त मान्यता के संयुक्त हो जाने से भ्रमपूर्ण देह दृष्टि का निर्माण हो गया है , जो समस्त अनर्थों का मूल है । इस देह दृष्टि के कारण ही सर्वप्रथम यह संकल्प अथवा विचार उत्पन्न होता है कि मैं सबसे अलग हूं, कुछ लोग मेरे अपने हैं तथा शेष मेरे अपने नहीं हैं । इन विचारों के कारण ममता, आसक्ति, राग, द्वेष आदि भावों का निर्माण होता है । फिर ये ही भाव नकारात्मक तथा स्वार्थपरक दृष्टिकोण को निर्मित करते हैं । स्वार्थपरक दृष्टिकोण के द्वारा मनुष्य स्वहित साधक कर्मों में प्रवृत्त होता है । कर्मों की बार - बार आवृत्ति आदत या स्वभाव में बदल जाती है और तब मनुष्य के हाथ में आता है - दुःख जो उसका भाग्य ही है क्योंकि उसी ने उपर्युक्त वर्णित शृङ्खला के रूप में स्वयं उसका निर्माण किया है । इस विस्तृत शृङ्खला को हम निम्न रूप में भी प्रकट कर सकते हैं -

 

पूर्व जन्मों में संचित अनुभव + वर्तमान का सूचनापरक ज्ञान

 

 

 

 


 

मान्यता

 

 

 


 

देहदृष्टि

 

 

 

 


 

विचार या संकल्प

 

 

 

 


 

भाव

 

 

 

 


 

दृष्टिकोण

 

 

 

 


 

कर्म

 

 

 

 


 

स्वभाव या आदत

 

 

 

 


 

भाग्य

           तात्पर्य यह है कि जन्मों - जन्मों में ले जाई गई एक भ्रमपूर्ण मान्यता मन से जुडकर शृङ्खलाबद्ध रूप में दु:खों को उत्पन्न करती है । इन दु:खों की समाप्ति तब तक नहीं होती जब तक दु:खों से त्रस्त हुई मनुष्य की स्वयं की चेतना ही ज्ञानयुक्त होकर एक दिन यह हुंकार नहीं भरती कि मैं देह नहीं हूं, मैं चैतन्यस्वरूप हूं, मैं अमृत - पुत्र हूं । जिस दिन मनुष्य की चेतना यह सिंहनाद करती है कि मैं शरीर नहीं हूं, मैं तो चैतन्य हूं - उसी दिन मनुष्य की भ्रमपूर्ण देह - दृष्टि का नाश होता है । परन्तु स्वयं के भीतर स्वयं ही यह सिंहनाद पैदा होना चाहिए । मात्र दूसरों के जगाने से मनुष्य नहीं जाग सकता, देह - दृष्टि का नाश नहीं होता । स्वयं को बदलने(आत्मपरिवर्तन) का यह पहला चरण है ।

          परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि जन्मों - जन्मों में संगृहीत हुई यह प्रबल मान्यता कि मैं देह हूं, ज्ञान चेतना के हुंकार से नाश को प्राप्त हुई इस देह - दृष्टि के मृत स्वरूप की रक्षा करती रहती है, अर्थात् मन के ऊपरी धरातल से तो देह - दृष्टि का नाश हो जाता है, परन्तु मन की गहरी पर्तों में वह विद्यमान रहती है । अतः यह अनिवार्य हो जाता है कि मन के ऊपरी धरातल पर नाश को प्राप्त हुई देह - दृष्टि के ऊरु/उरु का मन्थन किया जाए । उरु का अर्थ है - विस्तार । जैसा कि पूर्व वर्णित तालिका से स्पष्ट है - देह दृष्टि का विस्तार संकल्प, भाव, दृष्टिकोण, कर्म, आदत तथा भाग्य के रूप में हो रहा है । इसी विस्तार का हमें मन्थन करना है । संकल्प के स्तर पर यह सतत् ध्यान रखना है कि हमारे संकल्प अथवा विचार देह - केन्द्रित हैं अथवा आत्म - केन्द्रित । फिर भाव के स्तर पर निरन्तर परखते रहना है कि वहां प्रेम के भाव हैं अथवा राग - द्वेष आदि के । अपने दृष्टिकोण की परीक्षा करनी है कि वह स्वार्थपरक है अथवा परमार्थपरक । कर्म की जांच करनी है कि वे दूसरों को दुःख देने वाले हैं अथवा सुख देने वाले । आदत को भी ध्यान से देखते रहना है कि उसकी परिपक्वता गलत दिशा में है अथवा सही दिशा में । इस प्रकार इस सारे विस्तार को मथने पर ही हमारे भीतर जडें जमा चुकी देह - दृष्टि से उत्पन्न मलिनता जो अत्यन्त बौनी अर्थात् तुच्छ है - हमारे भीतर से बाहर निकल सकेगी । मलिनता थी तो उरु, लेकिन मन्थन के बाद निकली बौनी ही । स्वयं को बदलने (आत्म - परिवर्तन) की साधना का यह दूसरा चरण है ।

          परन्तु देह - दृष्टि से उत्पन्न मलिनता को बाहर कर देना भी पर्याप्त नहीं होगा क्योंकि मलिनता को बाहर कर देने पर जो खाली स्थान बनता है, उसे सात्विकता से भर देना भी आवश्यक है । इस खाली स्थान को कुशलता का मन्थन करके भर देना है । कुशलता के मन्थन का अभिप्राय है - पूर्व वर्णित तालिका में देह - दृष्टि के स्थान पर आत्म - दृष्टि को आरूढ कर देना है तथा फिर अपने संकल्प को समत्व के संकल्प से, भाव को प्रेम, सहयोग के भावों से, दृष्टिकोण को परमार्थपरक दृष्टिकोण से तथा कर्म को समग्र हित साधक कर्मों से युक्त कर देना है । तब धीरे - धीरे यह शृङ्खला हमारे सु-स्वभाव(आदत) को निर्मित करके सुखों का निर्माण कर देगी । स्वयं को बदलने(आत्म - परिवर्तन) की साधना का यह तीसरा चरण है ।

          इन तीन चरणों को पार करके ही पृथु चेतना का आविर्भाव होता है । पृथु का अर्थ है - विस्तार । अतः विस्तारयुक्त चेतना का अभिप्राय भी इस उपर्युक्त वर्णित आविर्भाव प्रक्रिया से ही अत्यन्त सुस्पष्ट हो जाता है । संक्षेप में, पृथु चेतना वह चेतना है जब मनुष्य के विचार, भाव, दृष्टिकोण, कर्म तथा स्वभाव प्रभृति सभी क्षेत्रों में से देह - केन्द्रित - दृष्टि के कारण उत्पन्न हुई स्वार्थपरक मलिनता सर्वथा निकल जाती है और उसके स्थान पर आत्म - केन्द्रित - दृष्टि से उत्पन्न हुई परमार्थ - परक - सात्विकता आरूढ हो जाती है । यह ध्यान देने योग्य है कि साधना के प्रथम चरण में मन्थन तो विस्तार, उरु, ऊरु का किया गया था, लेकिन प्राप्त हुआ छोटा, बौना ही । अब छोटे का मन्थन किया जा रहा तो पृथु, विस्तीर्ण प्राप्त हो रहा है ।

          पृथु चेतना से सम्पन्न हुए मनुष्य की दो महान् उपलब्धियां हैं । पहली उपलब्धि यह है कि उसकी स्थूल - सूक्ष्म शरीर रूपी पृथ्वी अब स्थिर, निर्मल और आज्ञाकारिणी होकर अपने गर्भ में छुपाकर रखी हुई उस प्रभूत सम्पत्ति को प्रकट करने लगती है जिसको प्राप्त करके मनुष्य अपने जीवन - यज्ञ को सफलतापूर्वक सम्पन्न करता है । दूसरी उपलब्धि यह है कि उसकी सूक्ष्म शरीर रूपी पृथ्वी गौ बनकर अर्थात् शुद्ध -बुद्ध स्वरूप विज्ञानमय कोश में रूपान्तरित होकर दुग्ध रूप में ऐसी अमूल्य सम्पत्ति को प्रदान करती है जो पृथु चेतना को तथा शरीर में क्रियाशील अन्य सभी शक्तियों को भी पुष्ट करती है ।

          पृथु चेतना से सम्पन्न हुए मनुष्य का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण गुण उसका अपना विजित मन है जिसकी सहायता से वह अपने अहंकार - विनाश रूप अन्तिम यज्ञ - कर्म को भी सम्पन्न करने में समर्थ हो सकता है । इस विजित मन में अन्त:प्रवेश की अद्भुत सामर्थ्य होती है जिसकी दो शक्तियां हैं । एक है शिखण्डिनी शक्ति तथा दूसरी है नभस्वती शक्ति । शिखण्डिनी शक्ति की सहायता से मनुष्य अपने मन को सम्पूर्णता में स्थापित करके स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीर रूप सभी स्तरों पर पवित्र हो जाता है तथा नभस्वती शक्ति की सहायता से अपने मन को पूर्णतः शून्य करके शरीर रूप पिण्ड तथा ब्रह्माण्ड में क्रियाशील सभी शक्तियों की दिव्यता का दर्शन करने लगता है । दिव्य दर्शन की यह सामर्थ्य उसकी चेतना का वर्धन करके उसे समत्व तथा एकत्व के पवित्र आसन पर आरूढ कर देती है । समत्व तथा एकत्व के पवित्र आसन पर विराजमान हुए इस मन की एक अद्भुत शक्ति है - प्रवहणशीलता अर्थात् एक ऐसी चेतना सामर्थ्य जो नदी की भांति प्रवहमान होती है । जैसे नदी अपने मार्ग में आए हुए प्रत्येक बाधक पदार्थ को पार करती हुई आगे बढती जाती है, न तो रुकती है और न ही उसके साथ संघर्ष में पडती है, अपितु उस बाधा को लांघती हुई अथवा उसके निकट से रास्ता बनाती हुई आगे बढ जाती है, उसी प्रकार प्रवहणशील चेतना भी न तो किसी बाधा से संघर्ष करती है, न रुकती है, अपितु बाधा को लांघकर अथवा निकट से अपना रास्ता बनाती हुई आगे बढती जाती है । मनश्चेतना की यह स्थिति ही सम्पूर्ण चेतना को रूपान्तरित करके उसे प्रचेता(विशिष्ट चेतना) बना देती है । यह रूपान्तरित चेतना( प्रचेता) ईश्वरीय धाम में पहुंचकर ईश्वरीय निर्देश प्राप्त करती हुई, ईश - कृपा से अत्यन्त दृढ होकर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में दक्षता को प्रकट करने लगती है । जो दक्षता पहले मनुष्य की जीव - चेतना में केवल संभावना के रूप में विद्यमान थी, वही अब कर्मक्षेत्र में साक्षात् प्रकट हो जाती है ।

But the story says that this emerging of impurities (negativity) from  all fields is not enough . It is also necessary to fill these gaps with positivity. This positivity will emerge by exploring our ability. Ability means – thinking over and over on our actual being. This fact has been symbolized by churning the right hand of king Vena. This churning changes our perception from body to soul and the whole long chain of thoughts, feelings, attitude, actions and habit also changes. Passing over these three paths, our consciousness expands. This expansion has been called Prithu, the expanded one (the opposite of this process, i.e., from expanded to narrow one was when a low caste was born from churning of lower level of consciousness. This reminds one of the uncertainty principle of modern Physics).

     As soon as the consciousness expands, our body on both levels – gross and subtle – becomes stable, pure, obedient and produces the treasure hidden inside. This has been symbolized by producing grains and medicines of earth. With the help of this treasure, a person performs his duties successfully. Our body also manifests such divinity which not only nourishes the expanded consciousnesss but all the powers working in the body. This has been symbolized as milching of milk from a cow.

     Two major qualities like acceptance and submission automatically occur in this expansion. That person always lives in harmony and loves greatness, but the highest quality of this expanded consciousness is his victorious mind. This victorious mind penetrates in deep, so a process and journey of inner higher development begins. This process and journey of development has been shown in the story as a family tree of king Prithu.

     This victorious mind named Vijitaashva – a son of Prithu has two powers – Shikhandini and Nabhaswati. Shikhandini means an integrated power. With the help of this power a person thinks that almighty God is present everywhere in all the forms of this universe, so I am infinite(everything). This thought purifies him on all levels – gross, subtle and causal. This purification is indicated as three sons of Shikhandini named Paavaka, Pavamaana and Shuchi.

     Nabhaswati means a mind power void of all thoughts. The person thinks himself zero(nothing). This power enables him to see divinity spreading everywhere. As this divinity originates from zero(shoonya), it has been symbolized as Havirdhana – the son of Nabhaswati.

     Seeing divinity uplifts the mind. Now the mind is harnessed with divine qualities of oneness and equality. This upliftment of mind has been symbolized as Barhishada or Praacheenabarhi – the son of Havirdhaana.

     This uplifted mind has a beautiful connection with pure flowing consciousness named Shatadruti. Impure consciousness is obstructed everywhere while the pure consciousness flows without any hindrance like a river. It does not mean that there is no hindrance in it’s way, they come in full force but a pure consciousness eiter jumps over silently or crosses that nearby. This flowing consciousness originates from the ocean of consciousness, therefore this has been symbolized as the daughter of ocean.

 

कथा की प्रतीकात्मकता

अब हम कथा के प्रतीकों को समझने का प्रयास करे -

१. राजा अङ्ग मनुष्य 'मन' का प्रतीक है । अङ्ग का अर्थ है - एक भाग या हिस्सा । मन भी मनुष्य के शरीर का एक भाग है तथा जब तक मनुष्य को स्व - स्वरूप(आत्म - स्वरूप) की पहचान नहीं होती, तब तक मन नामक भाग ही शरीर तथा जीवन पर शासन करने के कारण राजा की भांति स्थित होता है ।

२. सुनीथा शब्द वास्तव में सुनीता है । सुनीता का अर्थ है - सु + नीता अर्थात् भली - भांति ले जाई गई । मनुष्य अपने मन की इस मान्यता को कि मैं देह हूं - जन्मों - जन्मों तक अपने साथ लेकर चलता रहता है । अतः मन की यह मान्यता ही यहां सुनीता(सुनीथा) कही गई है ।

३. वेन शब्द देह दृष्टि को इंगित करता है । राजा अङ्ग और सुनीथा से वेन नामक पुत्र की उत्पत्ति होती है । इसका तात्पर्य यह है कि मन जब 'मैं देह हूं' इस मान्यता से संयुक्त होता है, तब देह - दृष्टि (पिण्ड और ब्रह्माण्ड के बाह्य स्वरूप का ही दिखाई देना, अन्त: स्वरूप आत्म - चेतना का तिरोहित रहना ) उत्पन्न होती है ।

४.वेन के दुराचारों से दु:खी होकर पिता अङ्ग का चुपचाल चले जाना और लौटकर न आना यह इंगित करता है कि मन जब देह - दृष्टि से युक्त हो जाता है, तब मनुष्य अपने मन के वास्तविक स्वरूप को, जो मात्र एक संकल्प अथवा विचार करने वाले सहायक यन्त्र के रूप में प्राप्त हुआ था- भूल जाता है । मन के शुद्ध स्वरूप की विस्मृति को ही राजा अङ्ग का चुपचाप चले जाना और पुनः लौटकर नहीं आना कहा गया है ।

५. वेन के अत्याचारों से प्रजा का दु:खी होना वास्तव में देह - दृष्टि के फलस्वरूप पिण्ड तथा ब्रह्माण्ड में क्रियाशील सभी शक्तियों का पीडित होना है ।

६. ऋषियों की हुंकार का अर्थ है - मनुष्य की अपनी ही ज्ञान - चेतना द्वारा की हुई हुंकार । जब मनुष्य देह - दृष्टि के फलस्वरूप प्राप्त हुए दु:खों से अत्यन्त संतप्तता का अनुभव करने लगता है, तब एक न एक दिन उसकी चेतना ज्ञानयुक्त होकर यह सिंहनाद करती है कि हे मनुष्य, तू देह नहीं है, तू तो शुद्ध चैतन्य स्वरूप है । तू क्यों भ्रम में पडकर अपने आपको भूला हुआ है ।

७. ऋषियों की हुंकार से वेन का मरना वास्तव में मनुष्य की अपनी ही ज्ञान - चेतना की हुंकार से अपनी ही देह - दृष्टि का नष्ट होना है ।

८. कथा में कहा गया है कि सुनीथा ने वेन के शव की रक्षा की । यह कथन इंगित करता है कि मनुष्य की ज्ञान चेतना अपनी हुंकार द्वारा देह - दृष्टि का नाश तो करती है, परन्तु जन्मों - जन्मों से दृढमूल हुई यह मान्यता कि मैं देह हूं(सुनीथा) उस देह - दृष्टि को समूल विदा नहीं होने देती अर्थात् देह - दृष्टि का संकल्प स्थूल स्तर पर तो नष्ट हो जाता है परन्तु सूक्ष्म रूप में वह विचारों, भावों, कर्मों में विद्यमान रहता है ।

९. कथा में कहा गया है कि ऋषियों ने मृत वेन के ऊरु/उरु का मन्थन किया । उरु का अर्थ है - विस्तार । देह - दृष्टि मनुष्य के विचारों में, भावों में, दृष्टिकोण में तथा कर्म आदि में सर्वत्र ही इतना व्यापक स्वरूप धारण कर लेती है कि जब तक प्रत्येक क्षेत्र का मन्थन करके उसे बाहर नहीं निकाला जाता, तब तक उस देह - दृष्टि का ऊपर - ऊपर से नाश होकर भी समूल नाश नहीं होता ।

१०. कथा में कहा गया है कि उरु के मन्थन से एक काला बौना पुरुष बाहर निकला, जिसने वेन के पापों को धारण कर लिया । काला बौना पुरुष वास्तव में देह - दृष्टि के फलस्वरूप मनुष्य के विचार, भाव, दृष्टिकोण, तथा कर्म आदि में उत्पन्न हुई वे अत्यन्त तुच्छ मलिनताएं हैं जो मन्थन करने पर बाहर निकल जाती हैं अर्थात् समाप्त हो जाती हैं ।

११. कथा में कहा गया है कि ऋषियों ने मृत वेन की दक्षिण भुजा का मन्थन किया, जिससे पृथु का आविर्भाव हुआ । दक्षिण का अर्थ है - योग्यता, निपुणता, सक्षमता अथवा कुशलता । मैं शान्त स्वरूप आत्मा हूं और यह दृश्यमान् जगत् भी वही है - ऐसी आत्म - दृष्टि से सम्बन्ध रखने वाले सकारात्मक विचार, भाव, कर्म आदि ही यहां दक्षिण भुजा का प्रतिनिधित्व करते हैं । जिस प्रकार भुजा को पकीकर किसी गिरे हुए को उठाया जाता है, उसी प्रकार आत्म - परक विचार, भाव, कर्म आदि ही मनुष्य का उत्थान करते हैं ।

१२. पृथु के आविर्भाव का अर्थ है - सर्वप्रथम अपनी ही ऋषि रूपी ज्ञान चेतना के सिंहनाद से देह - दृष्टि को नष्ट कर देना, फिर विचारों, भावों, कर्मों में फैली हुई तत्सम्बन्धित नकारात्मक मलिनता को मथ - मथ कर बाहर निकाल देना तथा अन्त में आत्म - दृष्टि - परक सकारात्मक सात्विक विचारों, भावों तथा कर्मों का भी पर्याप्त मन्थन करके आचरण के धरातल पर उसका अनुभव करना । इससे चेतना का जो विस्तार होता है, उसे ही पृथु का आविर्भाव होना कहा गया है ।

१३. कथा में कहा गया है कि ऋषियों ने जब पृथु का राज्योभिषेक किया, तब देवताओं ने पृथु को नाना उपहार समर्पित किए । यह कथन इंगित करता है कि मनुष्य की चेतना जब पृथु बनती है, तब शरीर में क्रियाशील देवरूप शक्तियां प्रसन्न भी होती हैं और सहायक भी ।

१४. कथा में कहा गया है कि पृथु के आविर्भाव से पूर्व प्रजा अन्नाभाव से पीडित थी क्योंकि पृथ्वी ने अन्न और औषधियों को अपने गर्भ में ही छिपा लिया था । परन्तु पृथु का आविर्भाव होने पर पृथ्वी यथेच्छ अन्न, औषधादि प्रदान करने लगी ।

          यह कथन इस तथ्य को इंगित करता है कि मनुष्य का स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर ही वह पृथ्वी है जिसमें अद्भुत, अपरिमित क्षमताएं भरी पडी हैं परन्तु मनष्य के देह - केन्द्रित नकारात्मक संकल्पों, विचारों, भावों तथा कर्मों के कारण शरीर रूपी यह पृथ्वी अत्यन्त चञ्चल बनी रहती है जिससे वे क्षमताएं प्रकट नहीं हो पाती और मनुष्य अत्यन्त दीनता, असमर्थता का अनुभव करता है । स्थूल - सूक्ष्म शरीर रूपी पृथ्वी में छिपी हुई क्षमताओं के प्रकट होने के लिए मनुष्य का आत्मकेन्द्रित सकारात्मक संकल्पों, भावों, कर्मों से युक्त होकर स्थिर, निर्मल होना अनिवार्य है । तब मनुष्य की यह शरीर रूपी पृथ्वी जीवन - यज्ञ हेतु आवश्यक समस्त गुण - सम्पत्ति को जिसे कथा में अन्न - औषधादि कहा गया है - प्रकट करने लगती है ।

१५. कथा में कहा गया है कि पृथु से प्रेरित हुई पृथ्वी ने गौ रूप धारण किया और महाराज पृथु ने स्वायम्भुव मनु को वत्स बनाकर अपने ही हाथ रूप पात्र में गौ दुग्ध का दोहन किया ।

          जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है - मनुष्य का स्थूल - सूक्ष्म शरीर ही पृथ्वी है । सूक्ष्म शरीरगत चेतना जब स्थिर, निर्मल होकर समत्व तथा एकत्व में स्थित होती है, तब गौ कहलाती है । शास्त्रीय भाषा में समत्व तथा एकत्व में स्थित इस सूक्ष्मशरीरगत चेतना अथवा गौ को ही विज्ञानमय कोश कहा जाता है । समत्व तथा एकत्व में स्थित होने का अर्थ है - ज्ञान, क्रिया और भाव शक्तियों का एकाकरता को प्राप्त हो जाना अथवा सत्त्व, रज, तम शक्तियों का समत्व(साम्यावस्था ) को प्राप्त हो जाना । मन की यह समत्व तथा एकत्व स्थिति पौराणिक भाषा में अत्रि स्थिति भी कही जाती है । । स्वायम्भुव मनु का अर्थ है - उच्च मन । स्वायम्भुव मनु को वत्स बनाने का अभिप्राय यह है कि जैसे गौ अपने वत्स पर मुग्ध होकर ही दुग्ध प्रदान करती है, उसी प्रकार विज्ञानमय कोश की शक्ति(गौ) उच्च मन(वत्स) पर मुग्ध होकर ही समत्व, एकत्व रूप दुग्ध प्रदान करती है । पृथु द्वारा अपने ही हाथों में दुग्ध को दुहने का अर्थ है - विज्ञानमय कोश की शक्ति द्वारा प्रदत्त समत्व, एकत्व रूप दुग्ध से पृथु चेतना का ही पोषित होना ।

१६. कथा में कहा गया है कि पृथु की भांति अन्य विज्ञजनों ने भी अपना - अपना वत्स बनाकर अपने - अपने दोहन पात्र में दुग्ध को दुहा ।

          ऐसा प्रतीत होता है कि विज्ञानमय कोश की शक्ति जैसे दुग्ध रूप विशिष्ट गुण सम्पत्ति से पृथु चेतना को पोषित करती है, उसी प्रकार मनुष्य शरीर में क्रियाशील अन्य सभी शक्तियों का भी पोषण करती है । चूंकि मनुष्य शरीर में क्रियाशील ये शक्तियां ऋषि, देवता, दैत्य, दानव, गन्धर्व, अप्सरा, पितर, सिद्ध, किम्पुरुष, यक्ष, राक्षस, सर्प, नाग, पक्षी, पशु तथा वृक्ष आदि रूपों में पृथक् - पृथक् स्वरूप वाली हैं, अतः उनके वत्स तथा दोहन पात्र भी पृथक् - पृथक् ही होंगे ।

          यहां यह स्पष्ट कर देना उपयोगी होगा कि पृथु चेतना के नियन्त्रण में आई हुई शरीर रूपी पृथ्वी सर्वप्रथम उस गुण - सम्पत्ति को प्रकट करती है जिससे मनुष्य का जीवन - यज्ञ सुचारु रूपेण सम्पन्न होता है । इसके बाद वही पृथ्वी उच्चतर धरातल पर स्थित होकर ऐसी गुण सम्पत्ति को प्रकट करती है जिससे सर्वप्रथम स्वयं पृथु चेतना पुष्ट होती है तथा अन्त में शरीर में क्रियाशील शक्तियां भी उस पृथ्वी से यथोचित दुग्ध का दोहन कर लेती हैं । इन तीनों ही प्रकार की गुण सम्पत्तियों का अत्यन्त स्पष्टीकरण भविष्य में अपेक्षित होगा ।

१७. कथा में कहा गया है कि पृथ्वी की इच्छानुसार पृथु ने पृथ्वी को समतल किया, जिससे इन्द्र का बरसाया हुआ जल बहने न पाए और वह आर्द्र बनी रहे ।

          पृथ्वी को समतल करने का अर्थ है - समग्र के प्रति स्वीकार भाव रखते हुए स्थूल - सूक्ष्म शरीर रूपी पृथ्वी का स्थिर हो जाना । इन्द्र द्वारा बरसाए हुए जल को धारण करने का अर्थ है - स्थिर शरीर(मन - बुद्धि) में ही यह क्षमता होती है कि वह जीवन में अनेक रूपों में हो रही परमात्म कृपा का अनुभव कर पाता है । पृथ्वी के आर्द्र बने रहने का अर्थ है - मन - बुद्धि रूपी पृथ्वी का परमात्म सत्ता के प्रति प्रेम - रस से भीगे रहना । कहने का अभिप्राय यह है कि चेतना के पृथु होने पर ही मन - बुद्धि रूपी पृथ्वी स्थिर होती है और स्थिर मन - बुद्धि में परमात्म - कृपा का अनुभव करने की सामर्थ्य आती है ।

१८. कथा में कहा गया है कि पृथु को अपनी पत्नी अर्चि के सहयोग से विजिताश्व, हर्यक्ष, धूम्रकेश, वृक तथा द्रविण नामक पांच पुत्र प्राप्त हुए ।

          अर्चि का अर्थ है - प्रकाश - किरण । विजिताश्व(विजित + अश्व) का अर्थ है - विजित मन, हर्यक्ष(हरि + अक्ष) का अर्थ है - हरि केन्द्रित दृष्टि, धूम्रकेश(धूम्र + केश) का अर्थ है - प्रपञ्च के प्रति धूमिल दृष्टि, वृक का अर्थ है - ग्रहणशीलता तथा द्रविण का अर्थ है - धन(धनात्मकता) की सामर्थ्य । जैसा कि पूर्व लेखों में भी कहा जा चुका है - पौराणिक साहित्य में पुत्र शब्द गुण का प्रतीक है । अतः यहां कहे गए पांच पुत्र पृथु चेतना के पांच गुणों को इंगित करते हैं । अर्थात् मनुष्य की चेतना जब पृथु बनती है, तब वह विजित मन रूपी अद्भुत गुण से युक्त हो जाता है । उसकी दृष्टि रूपान्तरित हो जाती है तथा वह समग्र के प्रति ग्रहणशील होकर (स्वीकार भाव से युक्त होकर) धनात्मकता से युक्त हो जाता है ।

१९. कथा में कहा गया है कि विजिताश्व को इन्द्र से अन्तर्धान होने की शक्ति प्राप्त हुई जिससे उन्हें अन्तर्धान भी कहते थे ।

          अन्तर्धान( अन्त: + ध्यान) का अर्थ है - भीतर देखने की शक्ति । जब तक मन अस्थिर होता है, तब तक वह बहिर्मुखी ही बना रहता है । परन्तु स्थिर, शान्त मन ( विजिताश्व) को भीतर देखने की शक्ति स्वयमेव (आत्म सत्ता से ) प्राप्त हो जाती है ।

२०. कथा में कहा गया है कि विजिताश्व को शिखण्डिनी नामक पत्नी से पावक, पवमान तथा शुचि नामक पुत्र तथा नभस्वती से हविर्धान नामक पुत्र प्राप्त हुआ ।

          शिखण्डिनी(शि+खण्डिनी) का अर्थ है - खण्ड या टुकडे को कृश(कमजोर) करने वाली अर्थात् अखण्डित दृष्टि । प्रत्येक मनुष्य पुरुष और प्रकृति अथवा चैतन्य और जड का एक योग है । परन्तु मनुष्य की दृष्टि जब इस योग पर केन्द्रित न रहकर केवल एक खण्ड पर केन्द्रित रहती है, तब खण्ड दृष्टि कहलाती है । शिखण्डिनी इस खण्ड दृष्टि को कृश करने वाली शक्ति है । पावक, पवमान तथा शुचि का अर्थ है - शरीर के क्रमशः स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण स्तरों पर विद्यमान पवित्रता । विजित मन के शिखण्डिनी शक्ति से युक्त होने पर शरीर के सभी स्तरों पर पवित्रता विद्यमान हो जाती है ।

          नभस्वती( नभ: + वती) का अर्थ है - आकाश(खालीपन) से युक्त । हविर्धान(हवि: + ध्यान) का अर्थ है - हवि पर ध्यान । देवताओं को प्रदान किया जाने वाला दिव्य भाव रूपी अन्न हवि कहलाता है । मनुष्य का विजित मन जब सभी प्रकार की चंचलताओं से मुक्त होकर खालीपन (शून्य) से युक्त होता है, तब ही वह शरीर में तथा जगत् में भी क्रियाशील देवता रूप शक्तियों की दिव्यता को देखने में समर्थ हो पाता है अर्थात् जागतिक संकल्पों से भरा हुआ मन दिव्यता को देखने में समर्थ नहीं हो पाता ।

This pure flowing consciousness joined with above mentioned uplifted mind transforms the whole consciousnesss working through ten senses. This transformed consciousness has been symbolized as Prachetaa – ten sons of Shatadruti and Praacheenabarhi.

     This transformed consciousness (Prachetaa) is able to enter in the realm of God and to communicate with him. Now it becomes more stable and more stronger which has been symbolized as the marriage of Prachetaas with Maarishaa.

     Maarishaa means stability. This Marishaa, joined with that transformed consciousness (Prachetaas) gives birth to efficiency/Daksha. This efficiency is the same which was residing inside as a potential only but now that potential manifests in personality or human actions . This manifested efficiency has been symbolized as Daksha – a son of Prachetaa and Maarishaa.

     In this way, process and journey of development completes as mentioned in Shrimad Bhaagawata. But this journey starts only when our consciousness first expands or becomes Prithu. Expansion of consciousness takes us to our heights.

 

२१. कथा में कहा गया है हविर्धान के पुत्र बर्हिषद् थे जो प्राचीनबर्हि नाम से प्रसिद्ध हुए ।

          बर्हि शब्द बृह धातु से बना है, जिसका अर्थ है - वर्धन करना और षद्(सद्) का अर्थ है - स्थित होना । अतः बर्हिषद्(बर्हि + षद्) शब्द का अर्थ हुआ - वर्धन पर स्थित । परन्तु यह वर्धन विज्ञानमय, आनन्दमय आदि उच्चतर कोशों का होना चाहिए, मनोमय आदि निम्नतर कोशों का नहीं । इसीलिए कथा में बर्हिषद् को प्राचीनबर्हि भी कहा गया है । वेदों में प्राचीन शब्द विज्ञानमय, आनन्दमय आदि उच्चतर कोशों को तथा अर्वाचीन शब्द मनोमय आदि निम्नतर कोशों को इंगित करता है । अतः प्राचीनबर्हि का अर्थ हुआ - उच्चतर कोश के वर्धन से युक्त । तात्पर्य यह है कि हविर्ध्यानी होने पर मनुष्य उच्चतर कोशों के वर्धन से युक्त हो जाता है ।

२२. कथा में कहा गया है कि प्राचीनबर्हि ने समुद्र - कन्या शतद्रुति से विवाह किया, जिससे उन्हें प्रचेता नामक दस पुत्र प्राप्त हुए ।

          शतद्रुत