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पुराणेषु सार्वत्रिकरूपेण कथनमस्ति यत् अमावास्या मोक्षस्य मार्गः अस्ति, पूर्णिमा सगुण भक्त्याः। अन्य शब्देषु, अमावास्या निर्गुण साधनायाः मार्गः अस्ति, पूर्णिमा सगुण साधनायाः। निर्गुण साधनायां पुरुषः प्रकृत्याः विकासस्य चिन्तां न करिष्यति। सगुणसाधनायां पुरुष-प्रकृत्योः सहविकासः भविष्यति। वैदिकग्रन्थेषु दर्शपूर्णमासस्य यः विवरणं उपलभ्यते, तस्मिन् अस्य तथ्यस्य उल्लेखं कुत्रास्ति। गरुडपुराणे कथनमस्ति --

वामा सोमात्मिका प्रोक्ता दक्षिणा रविसन्निभा  ९

मध्यमा च भवेदग्निः फलन्ती कालपूरिणी – गरुड १.६७.९

अयं प्रतीयते यत् अयं श्लोकः इडा-पिङ्गला-सुषुम्ना नाडीनां उल्लेखमस्ति। अत्र सुषुम्नायाः प्रतीकं अग्निः अस्ति, अयं प्रतीयते। एष श्लोकः दर्शपूर्णमासयागस्य यः पाठः ब्राह्मणग्रन्थेषु उपलब्धं अस्ति, तस्य व्याख्याकरणे साहायकः अस्ति। दर्शपूर्णमासयागे दर्शयागस्य देवता इन्द्राग्निः अस्ति, पूर्णमासस्य अग्नीषोमः। (इन्द्राग्नि एवं अग्नीषोम उपरि टिप्पण्यौ पठनीयौ स्तः)। योगवासिष्ठे ६.१.८१.८० कार्य-कारणयोः व्याख्या अग्नीषोमयोः आधारे कृता अस्ति। शिवपुराणे ७.१.२७.१३ उल्लेखमस्ति यत् शिव-पार्वती अग्नीषोमात्मकरूपौ स्तः। एते एवं अन्ये ये संदर्भाः पुराणेषु सन्ति (द्र. अग्नीषोमोपरि पौराणिकसंदर्भाः), ते कार्यकारणयोः संतोषजनकव्याख्यां न प्रस्तूयन्ते। पुराणेषु आख्यानमस्ति यत् इन्द्रेण वृत्रस्य वधः कृतमासीत् एवं तत्पश्चात् ब्रह्महत्यायाः भयतः सः कमलनाले अदृश्योभूत्। कालान्तरे देवेभिः अग्नेः साहाय्येन तस्य निवासस्य अन्वेषणं कृतमासीत्। अन्यः आख्यानः अस्ति (स्कन्दपुराणम् ६.४५.४५)  यत् एकः सरोवरः अस्ति यस्मिन् कालविशेषोपरि कमलेषु अङ्गुष्ठपुरुषस्य आविर्भावः भवति। एकः राजा तान् कमलान् गृहीतुं प्रयत्नं करोति किन्तु विसंज्ञः भूत्वा कुष्ठरोगेण पीडितः भवति। अयं प्रतीयते यत् अत्र पद्मस्य विकसनं कार्यः अस्ति, कारणस्य प्रतीकः अङ्गुष्ठपुरुषः अस्ति। यदा अयं अङ्गुष्ठपुरुषः बाह्यचक्षुषा दृष्टं न भवति, तदा अयं कमलनाले इन्द्ररूपेण निहितः अस्ति, अयं प्रतीयते। वैदिकवाङ्मये कथनमस्ति यत् अग्निः इन्द्रस्य आविर्भावे सहायकः अस्ति। पुराणकथनानुसारेण इन्द्राग्नयोः सहयोगः अमावास्या दिवसे भवति। पूर्णिमादिवसे अग्न्याः सहयोगं सोमस्य सार्धं भवति। सोमसंदर्भे अग्निना किं कर्तव्यमस्ति। पूर्णिमादिवसे अयं अपेक्षितमस्ति यत् मनसः चन्द्रमसि रूपान्तरणं पूर्णरूपेण भवेत्, मनसः न कोपि भागः अचेतन अथवा अर्धचेतनमनरूपेण पृथिव्योपरि, देहोपरि वसेत्। आकाशे सम्पूर्ण चन्द्रमा दृष्टिगोचरं भवेत्। किन्तु मनुष्यदेहे ये पापाः वसन्ति, ते अस्मिन् लक्ष्ये बाधकाः सन्ति। अग्नीषोमयोः एकं लक्ष्यं पापानां अपनयनं अस्ति। पुराणेषु पूर्णिमाकृत्येषु भीष्मपञ्चकव्रतादि ये कृत्याः सन्ति (द्र. पूर्णिमा उपरि पौराणिकसंदर्भाः), ते पापानां अपनयनं कुर्वन्ति येन पुरुषस्य साकं प्रकृत्याः अपि विकासं भवति।  अपि च, अग्नीषोमीय पुरोडाशकरणस्य पश्चात् अग्निः स्विष्टकृत् कृत्यं भवति।  पुरोडाश ग्रहणेन एव   अग्नेः अनिष्टं स्विष्टे रूपान्तरितं भवति(शतपथ ब्राह्मण ५.३.३.१०)। अत्र स्विष्टं – अनिष्टं प्रकृतेः एव रूपान्तरणाः सन्ति, अयं प्रतीयते।

     सोमयागे प्रवर्ग्यकृत्योपरि एवं सोमसुत्यादिवसस्य पूर्वं अग्नीषोमीयं अहः भवति। अस्य किमुद्देश्यं अस्ति, अयं अन्वेषणीयः।

पूर्णिमा

टिप्पणी : जैसा कि पहले ही ज्ञात है, संवत्सर के घटकों अहोरात्र, पक्ष, मास, अयन आदि का आविर्भाव सूर्य के परितः पृथिवी के भ्रमण, पृथिवी के परितः चन्द्रमा के भ्रमण और पृथिवी के अपनी धुरी पर भ्रमण के कारण होता है । अध्यात्म में पृथिवी, सूर्य व चन्द्रमा को वाक्, प्राण और मन कहा जाता है । पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा आकाश में पूर्ण दिखाई पडता है तथा अमावास्या के दिन चन्द्रमा आकाश से उतर कर पृथिवी में ओषधि - वनस्पतियों में समा जाता है । पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्र के महत्त्व को समझने की कुञ्जी हमें योगवासिष्ठ ५.१३.४७ से प्राप्त होती है जहां कहा गया है कि जड मन चित् तत्त्व की ओर भागता है । योगवासिष्ठ के अनुसार मन, प्राण आदि सभी पर चित् तत्त्व का आधिपत्य है । चित् तत्त्व विकृत होकर चित्त बनता है । मन का बहुत विस्तार है और योग में लगातार मन को एकाग्र करने की बात की जाती है । एकाग्र मन को जड मन कहा जा सकता है । महाभारत आश्वमेधिक पर्व २१.१५ में इस जड मन को स्थावर मन कहा गया है । मन में स्थावर मन और वाक् में जङ्गम वाक् श्रेष्ठ होती है । ओषधि - वनस्पतियों आदि को स्थावर कहा जाता है क्योंकि वह चल नहीं सकते । पशुओं आदि प्राणियों को जङ्गम कहा जाता है क्योंकि वह गति कर सकते हैं । अतः जब योगवासिष्ठ के अनुसार जड मन के चित् तत्त्व की ओर जाने की बात की जाती है तो इसका अभिप्राय यह हो सकता है कि वास्तविक चन्द्रमा चित् तत्त्व ही है । सारे वैदिक साहित्य में मन से चन्द्रमा के जन्म का उल्लेख आता है(चन्द्रमा मनसो जातः - पुरुष सूक्त) जिसकी व्याख्या उपरोक्त प्रकार से की जा सकती है । अब प्रश्न यह है कि इस चन्द्रमा को पूर्ण कैसे बनाया जाए । हमारा मन तो कहीं भोजन में, कहीं कामवासना में, अन्य वासनाओं में फंसा रहता है । कैसे उसे सब स्थानों से निकाल कर चित् शक्ति की ओर अग्रसर किया जाए । यदि मन किसी वस्तु की ओर आकर्षित हो रहा  है तो वह पूर्णतः असत्य नहीं है । वहां कोई सत्य छिपा हुआ है । जब हमें भूख नहीं होती तो कभी मन भोज्य पदार्थोंकी ओर आकर्षित नहीं होता । अतः यदि मन को एकाग्र करना है तो हमें प्राणों की ओर ध्यान देना होगा जिनके कारण मन आकर्षित होता है । अपने प्राणों को शुद्ध करना होगा । तब मन अपने आप अनावश्यक स्थानों से मुक्त हो जाएगा और ऊर्ध्वमुखी बन जाएगा । यह कहा जा सकता है कि अनावश्यक कामवासना आदि से तो किसी तरह मन को मुक्त किया जा सकता है लेकिन क्षुधा तो प्राणियों का अनिवार्य अंग है । उससे कैसे मुक्त हुआ जा सकता है ।

     इसका उत्तर संभवतः शतपथ ब्राह्मण में दर्शपूर्णमास इष्टि के संदर्भ में दिया गया है । अभी तक इस इष्टि की क्रियाएं रहस्यमयी ही रही हैं । शतपथ ब्राह्मण का आरम्भ दर्श - पूर्णमास याग की विधि से ही होता है और प्रथम काण्ड में केवल इसी विधि का वर्णन है । इस विधि में दर्श - पूर्णमास याग के १० आयुधों की गिनती कराई गई है जो द्वन्द्व रूप में हैं - शम्या - कृष्णाजिन, उलूखल - मुसल, दृषद- उपल, शूर्प - अग्निहोत्रहवनी और स्फ्य - कपाल । इन सभी आयुधों का उपयोग इस याग की विधि में किया जाता है । शम्या को जिह्वा का प्रतीक कहा गया है । दृषद- उपल को हनु - द्वय कहा गया है । कृष्णाजिन की विशेषता यह होती है कि यह मृग की त्वचा है जो श्वेत, कृष्ण व बभ्रु वर्ण के लोमों से युक्त होती है । श्वेत और कृष्ण को ऋक् और साम कहा गया है और बभ्रु संभवतः यजु हो सकता है । उलूखल के विषय में डा. फतहसिंह वैदिक मन्त्र 'चक्षुर्मुसलं काम उलूखलं' को उद्धृत करते हैं । शूर्प के बारे में शतपथ ब्राह्मण का कथन है कि इसके नड वर्षवृद्ध होते हैं । डा. फतहसिंह वैदिक मन्त्र को उद्धृत करते हैं कि 'दिति: शूर्पं अदिति: शूर्पग्राही' । पहले शाला से एक बैलगाडी में धान्य भरकर यागस्थल तक लाया जाता है । बैलगाडी के विषय  में कहा गया है कि 'अनोवाहाअनड्वाहा' । यहां गाडी के दो विशेषण अनोवाह और अनड्वाह क्यों रखे गए हैं, यह अन्वेषणीय है । अनड् बैल को कहते हैं । अथर्ववेद का कथन है कि प्राणापानौ अनड्वाहौ - प्राणापान ही दो बैल हैं । अनोवाह के संदर्भ में अन भी प्राण को ही कहते हैं । डा. फतहसिंह के अनुसार प्राण, अपान, व्यान आदि सभी शब्दों में अन धातु निहित है । अतः यह कहा जा सकता है कि शाला से जिस अन्न को शकट में लाया जा रहा है, वह कोई साधारण गाडी नहीं है, अपितु कोई प्राणों की गाडी है । अन्न लाने के पश्चात् कृष्णाजिन पर उलूखल रख कर उसे कूटा जाता है । कूटने के पश्चात् उसे शूर्प द्वारा छिलकों/तुष/भूसी से अलग किया जाता है । शुद्ध अन्न को दृषद- उपल(सिल - बट्टा) द्वारा पीसा जाता है । यह पीसना साधारण नहीं होता । पीसते समय मन्त्र उच्चारण किया जाता है - प्राणाय त्वा, अपानाय त्वा, व्यानाय त्वा । इसका अर्थ है कि बिना पिसे अन्न में प्राण आदि उपस्थित नहीं थे । अब जैसे - जैसे अन्न को पीसा जा रहा है, उसमें प्राणों का समावेश किया जा रहा है । पीसने के पश्चात् आटे में जल मिलाया जाता है, उसे गूंथा जाता है और फिर अग्नि पर पकाया जाता है । पकाने से पूर्व उसे फैलाकर रोटी या डबल रोटी का आकार दिया जाता है । इसे ही यज्ञ की भाषा में पुरोडाश कहते हैं । कहा गया है कि यह पुरोडाश बना तो यव या व्रीहि से होता है, लेकिन इसमें पशुओं के मेध का समावेश होता है । पशुओं का जो मेध क्षरित होकर पृथिवी में समा जाता है, उससे यव और व्रीहि का जन्म होता है । कहा गया है कि पुरोडाश निर्माण के समय उसमें पशुओं के विभिन्न अवयवों का साक्षात्कार होना चाहिए । उदाहरण के लिए, जब तक वह चूर्ण रूप में है, उसे पशु के लोम की संज्ञा दी गई है । जब उसमें जल मिलाया जाता है तो उसमें त्वचा का निर्माण हो जाता है । जब उसे गूंथा जाता है तो वह पशु के मांस का रूप हो जाता है । जब उसे पकाया जाता है तो वह अस्थि जैसा कडा हो जाता है । जब उस पर घृत चुपडा जाता है तो वह अस्थि के अन्दर स्थित मज्जा का रूप होता है । पुरोडाश निर्माण के पश्चात् उसकी देवों को आहुति दी जाती है । पुरोडाश निर्माण की भौतिक प्रक्रिया इतनी सरल है । लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से देखने पर पशु के जिन लोम, त्वक्, मांस, अस्थि व मज्जा का समावेश पुरोडाश में किया गया है, वह साम गान में निहित पांच प्रकार की मुख्य भक्तियां हैं जिन्हें क्रमशः हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार और निधन कहा जाता है । हिंकार लोम जैसा है । लोम का एक अर्थ रोम - रोम से हर्षित होना हो सकता है । यह भक्ति का आरम्भ है । जब हिंकार को सामवेद के अतिरिक्त ऋग्वेद के लिए व्यक्त किया जाता है तो कहा गया है कि वह भूमि के खनन जैसा है । त्वचा के रूप में यागविधि में कृष्णाजिन का उदाहरण दिया जा सकता है जो वेद - द्वय रूपी त्रयी विद्या से युक्त होता है । सामवेद की भक्तियों में त्वचा प्रस्ताव भक्ति के तुल्य है । प्रस्ताव के विषय में कहा गया है कि वह कामना के उदय होने के तुल्य है । कामना का अर्थ विभिन्न स्तरों पर भिन्न - भिन्न हो सकता है । लगता है अन्तिम स्तर सूर्य या चन्द्रमा का उदय है । मांस को समझने के लिए ऐतरेय आरण्यक ३.२.१ का कथन उद्धृत किया जा सकता है । इस कथन के अनुसार वर्ण मातृकाओं में जो अ, आ आदि १६ स्वर होते हैं, वह मज्जा का रूप होते हैं । जो २५ स्पर्श व्यञ्जन क, ख आदि होते हैं, वह अस्थि का रूप होते हैं । जो श, ष, स आदि ऊष्माण अक्षर हैं, वह प्राणों का रूप होते हैं । प्राण ही ऊष्मा उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी होते हैं । एक चौथा आयाम जोडा गया है मांस का । कहा गया है कि मांस अन्तस्थ अक्षरों य, र, ल, व का रूप है । इसका अर्थ यह हुआ कि शरीर में मांस अतिरिक्त ऊष्मा के अवशोषण का कार्य करता है । आध्यात्मिक रूप में मांस को ऊर्जा के अनुनाद की स्थिति कहा जा सकता है जहां से ऊर्जा का क्षरण नहीं होता । अस्थि के बारे में कहा गया है कि वर्ष में ३६० अहोरात्र होते हैं और ३६० ही अस्थियां होती हैं । फिर कहा गया है कि ३६० अस्थियां दक्षिण पार्श्व में और ३६० वाम पार्श्व में होती हैं । इसी प्रकार एक संवत्सर में ३६० दिन और ३६० रात्रि होते हैं । इससे संकेत मिलता है कि प्रत्येक अस्थि एक नए दिन के आरम्भ की, एक नई उषा के आरम्भ की सूचक है और हमें ३६० अस्थियों का साक्षात्कार करना है । वर्ण मातृका के संदर्भ में जब अस्थियों को स्पर्श रूप कहा जाता है तो उसका क्या निहितार्थ हो सकता है, यह अन्वेषणीय है । डा. फतहसिंह के अनुसार तो जब शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध नामक पांच तन्मात्राओं की बात की जाती है तो उसमें शब्द निर्विकल्प समाधि की स्थिति है । फिर व्युत्थान होने पर पहली स्थिति स्पर्श की होती है, जब इस जगत से सम्पर्क का आरम्भ होता है । दूसरी ओर, त्वचा को स्पर्श के लिए उत्तरदायी माना जाता है क्योंकि त्वचा के द्वारा ही शीत - उष्ण आदि का संवेदन होता है । सामवेद की भक्तियों के संदर्भ में अस्थि को प्रतिहार कहा जा सकता है । लगता है कि प्रतिहार वह स्थिति है जहां पदार्थ की अधूरी सममिति को पूर्ण करने के लिए प्रति - पदार्थ का आहरण किया जाता है, वैसे ही जैसे पृथिवी का जड पदार्थ अपनी सममिति को पूर्ण करने के लिए विद्युत आवेश रूपी सूर्य की ऊर्जा को धारण करता है ( श्री जे.ए.गोवान के शब्दों में ) ।

    मज्जा के स्वर रूप होने के संदर्भ में, शरीर में चक्रों में स्वरों की स्थिति विशुद्धि चक्र या कण्ठ के चक्र में कही गई है । श्री रजनीश की पुस्तक शृङ्खला कुण्डलिनी और सात शरीर के अनुसार विशुद्धि चक्र वह स्थिति है जहां हमारा सूक्ष्म शरीर इतना शुद्ध हो जाता है कि इस जगत के स्थूल अंश उसके गमन में कोई बाधा नहीं डाल सकते । ऐसे सूक्ष्म शरीर एक दूसरे से सरलता से मिल सकते हैं, अथवा यों कहें कि एक चेतना से दूसरी चेतना में पृथक्त्व बहुत ही कम रह जाता है । सामवेद की भाषा में मज्जा को निधन भक्ति कहा गया है । आधुनिक विज्ञान की भाषा में निधन को इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि यह चेतना की सबसे सममित अवस्था है । किसी पदार्थ में सममिति जितनी कम होगी, उसे अपनी सममिति को पूर्ण करने के लिए उतनी ही अधिक प्रति - पदार्थ की आवश्यकता पडेगी । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि उसे मिथुन की आवश्यकता होगी । निधन की अवस्था मिथुन से, दो विपरीत आवेशों वाली स्थिति से रहित है । घृत के अणु भी सबसे अधिक सममित होते हैं । अतः वह मज्जा का रूप हैं ।

जैमिनीय ब्राह्मण २.३८ का कथन है कि पुरोडाश से पूर्णिमा की प्राप्ति हो जाती है । इस कथन को पूर्णिमा के रहस्य को समझने की कुंजी मान सकते हैं । यह समझना होगा कि पुरोडाश से क्या तात्पर्य हो सकता है ।        वैदिक याग का द्रव्य पुरोडाश वास्तव में क्या हो सकता है, यह समझने में यह वैदिक कथन महत्त्वपूर्ण होगा कि घर्म पुरोडाश है । घर्म को एक गर्मी के रूप में समझा जा सकता है । किसी व्यक्ति को भोजन करने के पश्चात् अत्यन्त ऊष्मा का अनुभव होता है । यह घर्म का एक प्रकार है । क्षुधा का अनुभव होना घर्म का दूसरा प्रकार है । सिर में दर्द हो जाना घर्म का एक अन्य प्रकार है । मुख पर कान्ति का प्रकट हो जाना भी घर्म का एक प्रकार है । कहा गया है कि यह घर्म अशान्त होता है । इसको शान्त करने की आवश्यकता है । यदि पेट में क्षुधा का अनुभव होता है तो उसे बाह्य अन्न द्वारा शान्त किया जा सकता है । लेकिन वैदिक साहित्य लगता है कि किन्हीं अन्य प्रकार के घर्मों की बात करता है । वैदिक साहित्य के अनुसार अग्निहोत्र कर्म में सायं - प्रातः सूर्य व अग्नि दो प्रकार के घर्म होते हैं । उससे आगे दर्श और पूर्णिमा के घर्म होते हैं । पूर्णिमा के शान्त हुए घर्म को पुरोडाश कहा गया है । आटे को जो पुरोडाश का रूप दिया जाता है, उसमें पशु के अवयवों की कल्पना की जाती है, वह घर्म को शान्त करने के लिए ही है । इससे आगे सोमयाग में घर्म की उत्पत्ति उबलते हुए घृत में पयः धारा के प्रक्षेप द्वारा प्रदर्शित की जाती है । इसको शान्त करने के लिए लगता है कि सोम रस की आवश्यकता होती है । इतना ही नहीं, यह कल्पना की गई है कि घर्म तो केवल शीर्ष भाग में ही उत्पन्न होता है, शेष शरीर को उससे क्या लाभ मिला? कण्ठ से नीचे के भाग को लाभ पहुंचाने के लिए घर्म से सम्बद्ध एक अन्य इष्टि की जाती है जिसे उपसद इष्टि कहा जाता है । कहा गया है कि दर्श - पूर्णमास के संदर्भ में अर्धमास उपसदों का रूप होते हैं ।

          पूर्णिमा व्रत के लौकिक रूप में पूर्णिमा के दिन उपवास किया जाता है जिसका समापन चन्द्रमा के दर्शन करके ही किया जाता है । इसका निहितार्थ यह हो सकता है कि सामान्य रूप में उत्पन्न घर्म - क्षुधा आदि की तृप्ति तो बाहर से भोजन द्वारा की जा सकती है, लेकिन पूर्णिमा के दिन, पर्वकाल में जो घर्म उत्पन्न हुआ है, उसकी शान्ति केवल चन्द्रमा की उत्पत्ति द्वारा ही करनी है । और वैदिक दर्शपूर्ण मास याग में जो अनः द्वारा अन्न को शाला से लाने का विधान है, उसका तात्पर्य यह हो सकता है कि हमारे द्वारा ग्रहण किया गया अन्न रस हमारे शरीर में विभिन्न धातुओं के रूप में जमा होता रहता है । उपवास में एक स्थिति ऐसी आती है कि शरीर में जमा धातुएं पिघलने लगती हैं । कहा जाता है कि जो लोग अनशन पर बैठते हैं, उनको पहले चार - पांच दिन तो कष्ट का अनुभव होता है । फिर जब शरीर की धातुएं पिघल कर ऊर्जा देने लगती हैं, तब अधिक कष्ट का अनुभव नहीं होता । अतः अनः से अन्न को ढोने का तात्पर्य यह हो सकता है कि हमारे प्राण - अपान अब शरीर के जिस अंग में भी प्रवेश करते हैं, वहां की धातु को पिघला कर उसका सार भाग ग्रहण करके अपने साथ लाते हैं । इस सार भाग से पुरोडाश का निर्माण होता है ।

          पुरोडाश में पशु के पांच अवयवों लोम, त्वक्, मांस, अस्थि व मज्जा का साक्षात्कार करने के संदर्भ में वैदिक साहित्य की निम्नलिखित सार्वत्रिक यजु ( उदाहरण के लिए, वाजसनेयि संहिता २०. , तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.५.८ आदि ) महत्त्वपूर्ण है :

लोमानि प्रयतिर्मम त्वङ् म आनतिरागति: ।

मांसमुपनतिर्वस्वस्थि मज्जा म आनति: ।।

तैत्तिरीय ब्राह्मण में सायणाचार्य द्वारा इसका भाष्य करने का प्रयत्न किया गया है । जिस प्रकार शरीर में त्वचा पर लोम होते हैं, इसी प्रकार उपनिषदों व पुराणों के अनुसार पृथिवी की त्वचा पर ओषधि व वनस्पतियां होती हैं । ओषधि - वनस्पतियों की यह विशेषता होती है कि उनका विकास पृथिवी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के विपरीत दिशा में होता है । अग्नि का विकास भी ऊर्ध्व दिशा में होता है । अतः उपरोक्त यजु में कहा गया है कि लोम प्रयति हैं, सोमयाग का प्रायणीय अह हैं, अग्नि का ऊर्ध्वमुखी विकास हैं । फिर त्वचा को आनति व आगति कहा गया है । सामान्य रूप से त्वचा शीत - उष्ण का संवेदन करती है, मछली आदि कुछ प्राणियों में प्राणवायु का अवशोषण करती है, सूर्य की किरणों का अवशोषण करके कुछ एक विटामिनों का निर्माण करती है । यजु से संकेत मिलता है कि इन क्रियाओं को और अधिक दक्षता से सम्पन्न किया जा सकता है । यदि कल्पना को और अधिक ऊंचे स्तर तक ले जाया जाए तो कहा जा सकता है कि लोम किसी किरण का उत्सर्जन कर रहे हैं और त्वचा परावर्तित किरण को ग्रहण कर रही है ।

          पूर्णिमा से पहले दिन को उपवसथ कहा जाता है । इस दिन अग्नीषोमीय पशु के आलभन का विधान है । इस अवसर पर ३३ प्रयाज - अनुयाज - उपयाज आदि के रूप में आप्री सूक्त की ऋचाओं द्वारा पशु के प्रीणन करने का भी विधान है । कहा गया है कि कुछ देवता ऐसे हैं जो सोम का पान करके तृप्त होते हैं । जो सोमपान के अधिकारी नहीं हैं, उनकी तृप्ति के लिए पशु भक्षण का विधान है । ३३ प्रयाजों आदि को इन्हीं असोमपा देवों का रूप दिया गया है । एक विशेष तथ्य यह है कि प्रयाज आदि में किसी देवता विशेष का नाम नहीं लिया जा सकता । सभी देवता अनिरुक्त होते हैं । फिर सोमपान करने वाले देवताओं की तृप्ति सोमयाग द्वारा की जाती है । यह उल्लेखनीय है कि पूर्णमास इष्टि के दिन केवल ५ प्रयाज और ३ अनुयाज करने का विधान है । प्रयाजों के विषय में उल्लेख आता है कि प्राण ही प्रयाज हैं । शतपथ ब्राह्मण ११.२.३ से ११.२.७ तक दर्शपूर्णमास इष्टि की व्याख्या की गई है जहां ५ प्रयाजों को त्वेष, अपचिति, यश, ब्रह्मवर्चस् और अन्नाद्य कहा गया है । उपरोक्त शब्दों की व्याख्या अभी तक अज्ञात है । त्वेष का उपयोग द्रव्य को पीसने के लिए किया जाता है ( त्विषिर्मे अजस्रं पिनष्टि – दृषद का रूप) । अन्नाद्य प्राण की प्राप्ति से लगता है कि क्षुधा पर नियन्त्रण संभव होता होगा । यह हो सकता है कि इन पांच प्राणों की प्राप्ति पर ही पूर्ण चन्द्रमा का उदय संभव होता होगा ।

          यह उल्लेखनीय है कि दर्शपूर्णमास इष्टि की सारी क्रियाओं में केवल वाक् और प्राण का ही उल्लेख आता है । मन का उल्लेख केवल मनु के रूप में दो आख्यानों में आता है । एक आख्यान में तो असुरों ने मनु का यज्ञ कराने के लिए उसके पास उपलब्ध वाक् को समाप्त करने का प्रयत्न किया जिसमें वे सफल नहीं हो पाए । मनु का दूसरा आख्यान मनु द्वारा लघु आकार के मत्स्य की प्राप्ति, उसका वर्धन, मत्स्य द्वारा मनु की नौका की बाढ के जल से रक्षा और मनु की आहुति से इडा के जन्म आदि के रूप में आता है । इस प्रकार इडा या इला मनु की पुत्री है तथा श्रद्धा को मनु की पत्नी कहा जाता है । शतपथ ब्राह्मण में अन्त में श्रद्धा और इडा को मिलाकर एक कर दिया गया है । डा. फतहसिंह मनु शब्द की व्याख्या मन - ॐ के रूप में करते हैं ।

 

It is well known that the components of an year like days and nights, fortnights, months etc. are formed due to relative motions of sun, earth and moon, and also due to revolution of earth along it's own axis. In spirituality, sun, earth and moon are represented by life forces/praanas, inner voice and mind. One has to make efforts that these three revolve about each other. Regarding full moon day, the moon on this day appears complete in the sky. On the other hand, on new moon day, it vanishes from the sky. It has been stated that on this new moon day, moon gets absorbed in the herbs on earth. That is why it is not visible in the sky. The puzzle of extraordinary importance given to full moon day can be resolved on the basis of statement of one sacred text. According to this statement, when mind is concentrated, it runs in upward direction, towards the ultimate life force called Chit. When this pure force descends below in impure form, it is called Chitta. In all probability, the pure Chit is the moon of full moon day. The question is - how to force the mind to run upwards. The answer may be that one has to detach his mind from all worldly object, passions and then it will automatically run upwards. But the fact is that the attachment of mind with worldly objects is not without purpose. Wherever our existence requires fulfilling essential needs, mind is diverted there. But the fact is that some objects which we consider essential may be actually false. Take for example sex. This passion can be eliminated. Similar can be the fate of other passions also. But what about hunger? Answer about it seems to lie in the rituals of full moon day. 

One sacred text states that full moon can be achieved by offering of a sacrificial bread. This statement can be considered as the key to understand full moon. One sacred text states that 10 implements are needed to perform full moon and new moon sacrifices, like deer skin, wooden mortar and pestle, stone mortar and pestle, winnowing basket etc. These may have different symbolic meanings. In the beginning of full moon sacrifice, cereals are transported from storehouse to sacrificial place in a wooden cart drawn by bullocks. Bullocks are symbolic of praanas, the life forces. After bringing the cereals, these are cleaned of husk by pounding in wooden mortar and pestle. Then these are cleaned by the winnowing basket. Then these are ground on stone mortar and pestle. During this act, it is said that life forces are introduced into the cereal grains.  After that, sacred water is mixed with the powder, it is mashed as dough and then it is spread and baked on fire. This is called the sacrificial bread. It has been said that though it is made of cereals, one has to learn how to introduce essence of animals in it. One has to introduce hair, skin, flesh, bone and bone marrow in it simply by mixing of water while preparing the dough and then baking. This is a symbolic language. Hair may mean immense pleasure which raises hair. This is the start of devotion of Saama veda. One can use this pleasure to dig the earth, his own body. Skin may mean a combination of knowledge of three vedas. This can be said to become associated with desire and the crux of it is the rise of sun or moon. Regarding flesh, it has been stated that flesh absorbs heat, while life forces generate heat. Flesh can also represent the state of resonance of energy, where there is no decay of energy. Regarding bone, it has been said that one has to visualize in himself 360 bones which are equivalent to 360 days of an year or 360 rises of dawn. From the point of view of modern sciences, bone may also be symbolic of a state when gross matter acquires energy from the sun to compliment it’s lost symmetry( See J.A.Gowan for details). The last type of devotion is called bone marrow. This is the state of highest symmetry. This is free from combination of opposite charges required to complete lost symmetry. This state is represented by vowels of Sanskrit vocabulary. This is a state where consciousness is so pure that one entity can easily mix with the other. This entity is not corrupted by gross elements.

            In order to better understand what may be the sacrificial bread, one has to understand that it may be a form of heat, feeling hot in a particular part of the body. For example, one may feel hot after taking food. Feeling hunger may also be a form of heat. Headache may be another form of heat. It has been said that this heat is disturbing/disturbed. One has to pacify it. If one feels hunger, it can be satisfied by food. But vedic literature talks of some other form of heat which is not to be pacified by food from outside. These types of heats appear at the times of twilights. One form of heat appears in the morning and evening. The other form appears on full and new moon days. This type of heat is pacified by offering of sacrificial bread. May be the presumption of manifestation of animal parts in the bread is a process by which this heat has to be pacified. The next higher stage of this heat is produced in Soma yaaga where a stream of milk is poured into boiling butter due to which appears a very high flame in the sky.

            In tradition, fast is observed on full moon day which is broken only after sight of full moon. This may signify that one has to pacify his heat on this day only by manifestation of cool moon state. The meaning of bringing cereals in a cart to sacrificial ground may be symbolic of allowing the stored energy of our body to flow along with our breath. It is said that those who sit on hunger strike, they feel the pain of hunger for initial few days. Then their system becomes able to use the stored energy of the body. Then pain of hunger becomes less. Then life forces are able to melt the stored energy and take along the essence of it. It may be assumed that this essence of stored energy forms the sacrificial bread.

            No god is mentioned by name in full moon sacrifice. It is said that their manifestation does not take place as yet. And those gods who are not yet manifest, they are not worthy of the offering of Soma. They are worthy of the offering of animals. Soma can be offered only in Soma yaaga.

First published : 1-8-2007( Shraavana Krishna 3, 2064 Vikrami)

 

संदर्भ

*चतुर्होत्रा पौर्णमास्यां हवींष्यासादयेत्पञ्चहोत्रामावास्यायाम् – आप.श्रौ.सू. २.११.५

*स्रुवेण पार्वणौ होमौ। ऋषभं वाजिनं वयं पूर्णमासं यजामहे। स नो दोहतां सुवीर्यं रायस्पोषं सहस्रिणम्। प्राणाय सुराधसे पूर्णमासाय स्वाहेति पौर्णमास्याम्। - आप.श्रौ.सू. २.२०.५

*आग्नेयो ऽष्टाकपालो ऽग्नीषोमीय एकादशकपाल उपांशुयाजश्च पौर्णमास्यां प्रधानानि। - - - नासोमयाजिनो ब्राह्मणस्याग्नीषोमीयः पुरोडाशो विद्यते। - आप.श्रौ.सू. २४.२.३१

*वार्त्रघ्नं वै पौर्णमासं (हविः)। इन्द्रो ह्येतेन वृत्रमहन्। - मा.श. १.६.४.१२

*अग्नीषोमीयँँ हि पौर्णमासँँ हविर्भवति। - मा.श. १.८.३.२

*अथैष क्लृप्तः प्रतिष्ठितो यज्ञो यत्पौर्णमासम्। - मा.श. २.५.२.४८, २.६.२.१९

*असौ वै चन्द्रः पशुस्तं देवाः पौर्णमास्यामालभन्ते। - मा.श. ६.२.२.१७

*एतदु पौर्णमासेन चेष्ट्वाऽऽमावास्येन च यावतीँँ सौम्येनाध्वरेण जितिं जयति तावतीं जयति, तन्महायज्ञो भवति। - का.श. १.३.४.८

*घ्नन्ति वा एनं (वृत्रं) पूर्णमासे। - तै.ब्रा. २.५.२.४

*पूर्णमासे संनयेत् – तै.ब्रा. २.५.५.४

*कामो वै पौर्णमासी – तै.ब्रा. ३.१.४.१५

*घर्मौ वा एषोऽशान्तः। अर्धमासेऽर्धमासे प्रवृज्यते। यत्पुरोडाशः। - तै.ब्रा. ३.२.८.४

*बर्हिषा पूर्णमासे व्रतमुपैति वत्सैरमावास्यायां – तै.सं. १.६.७.२

*सोमः पूर्णमासः। - तै.सं. २.२.१०.२

*वार्त्रघ्नी (ऋचौ) पूर्णमासे ऽनूच्येते – तै.सं. २.५.२.५

*किं देवत्यं पौर्णमासमिति प्राजापत्यमिति ब्रूयात्। - तै.सं. २.५.२.७

*वैमृधः पूर्णमासे ऽनुनिर्वाप्यो भवति तेन पूर्णमासः सेन्द्रः। - तै.सं. २.५.४.१

*पौर्णमासेनैव वज्रं भ्रातृव्याय प्रहृत्य - - - देवताश्च यज्ञं च भ्रातृव्यस्य वृङ्क्ते। - तै.सं. २.५.४.२

*पौर्णमासीमेव यजेत भ्रातृव्यवान्नामावास्यायाँँ हत्वा भ्रातृव्यं नाऽऽप्याययति। - तै.सं. २.५.४.३

*नाऽमावास्यायां च पौर्णमास्यां च स्त्रियमुपेयाद्, यद्युपेयान्निरिन्द्रियः स्यात्। - तै.सं. २.५.६.४

*सोम॑स्य॒ वै राज्ञो॑ऽर्धमा॒सस्य॒ रात्र॑यः॒ पत्न॑य आस॒न्, तासा॑ममावा॒स्यां॑ च पौर्णमा॒सीं च॒ नोपै॒त्, ते ए॑नम॒भि सम॑नह्येतां॒ तं यक्ष्म॑ आर्च्छ॒द् राजा॑नं॒ यक्ष्म॑ आर॒दिति॒ तद्रा॑जय॒क्ष्मस्य॒ जन्म॒, यत्पापी॑या॒नभ॑व॒त् तत्पा॑पय॒क्ष्मस्य॒ यज्जा॒याभ्या॒मवि॑न्द॒त्, तज्जा॒येन्य॑स्य॒ – तै.सं. २.५.६.४

*सदृशीनाँँ रात्रीणाममावास्यायां च पौर्णमास्यां च देवा इज्यन्ते। - तै.सं. २.५.६.६

*पौर्णमासं यज्ञमग्नीषोमीयं पशुमकुर्वत। - तै.सं. ३.२.२.२

*पौर्णमास्यनुमतिः। - तै.सं. ३.४.९.६

स त्वै दर्शपूर्णमासाव् आलभेत य एनयोर् अनुलोमं च प्रतिलोमं च विद्याद् इति । अमावास्याया ऊर्ध्वं तद् अनुलोमम् पौर्णमास्यै प्रतीचीनं तत् प्रतिलोमम् ।  - तैसं ३.५.१.३

*अमावास्या वै सरस्वती पूर्णमासः सरस्वान्। - तै.सं. ३.५.१.५

*देवानां वा एते सदोहविर्धाने यत् पौर्णमासी चामावास्या च - - -उभे पुण्याहे उभे यज्ञिये – मै.सं. १.६.९

*प्रजापतेर्वा एतौ स्तनौ यत्पौर्णमासी चामावास्या च। - मै.सं. १.६.९

*चक्षुषे कं दर्शपूर्णमासा इज्येते। - मै.सं. १.९.५

*तेजसे कं पूर्णमा इज्यते। - मै.सं. १.९.५

*यदग्नीषोमीयं पूर्णमासे हविरासीत् तमग्नीषोमीयं पूर्वेद्युः पशुमालभन्त। - मै.सं. ३.६.१०

 दाक्षायण यज्ञेन इष्यन् फाल्गुन्याम् पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते ।- कौ.ब्रा. ४.४

इडादधेन इष्यन्न् एतस्याम् एव पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते- कौ.ब्रा. ४.५

सार्वसेनि यज्ञेन इष्यन्न् एतस्याम् एव पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते - कौ.ब्रा. ४.६

शौनक यज्ञेन इष्यन्न् एतस्याम् एव पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते - कौ.ब्रा. ४.७

*ब्रह्म वै पौर्णमासी क्षत्रममावास्या – कौ.ब्रा. ४.८

मुन्ययनेन इष्यन्न् एतस्याम् एव पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते - कौ.ब्रा. ४.१०

तुरायणेन इष्यन्न् एतस्याम् एव पौर्णमास्याम् प्रयुङ्क्ते - कौ.ब्रा. ४.११

*प्रतिष्ठा वै पौर्णमासम् – कौ.ब्रा. ५.८, १८.१४

* अग्नीषोमीयया पूर्वपक्ष उपतिष्ठेताग्नीषोमयोर्वा एतद् भागधेयं यत् पौर्णमासम् (हविः) – काठ.सं. ७.५

*तेषां यत् पौर्णमासमासीत् तमग्नीषोमीयं पशुमकुर्वत। यः पूर्वेद्युरालभ्यते। - कपि.कठ सं. ३६.४

*यत् पुरोडाशस्तेन पौर्णमासम्। य(द्) दधि तेनामावास्यम्। - जै.ब्रा. २.३८

तद् यत् पौर्णमासीर् उत्सृजन्ते ऽरिष्ट्या एव। यो वै पूर्ण आवपति, वि वा वै तत् पतति प्र वा शीर्यते। पूर्ण एष यत् संवत्सरः। तद् यत् पौर्णमासीर् उत्सृजन्ते ऽरिष्ट्या एव। - जै.ब्रा. २.३९३

*प्रजापतिर् एष यत् संवत्सरः। तस्यैते प्राणा यत् पौर्णमास्यः। - जै.ब्रा. २.३९३

* प्रजापतिर् एष यत् संवत्सरः। तस्यैते प्राणापाना यत् पौर्णमास्यश् चामावास्याश् च। तद् यत् पौर्णमासीश् चामावास्याश् चोत्सृजन्ते, प्रजापतेर् एव तत् प्राणापानान् उत्सृजन्ते। तम् एतम् उपरिष्टात् संवत्सरस्य चतुर्विंशतिरात्रम् उपयन्ति। अथो आहुः - पौर्णमासीर् एवोत्सृज्या इति। प्राणभाजना वै पौर्णमास्य्, अपानभाजनामावास्या। बहिर् वै सन्तं प्राणम् उपजीवन्त्य्, अन्तस् सन्तम् अपानम्। तद् यत् पौर्णमासीर् उत्सृजन्ते, बहिस् सन्तं प्राणम् उपजीवामान्तस् सन्तम् अपानम् इति।  । - जै.ब्रा. २.३९४

*प्राणभाजना वै पौर्णमासी। - जै.ब्रा. २.३९४

*तस्य (संवत्सरस्य) एते प्राणापाना यत् पौर्णमास्यश्चामावास्याश्च। - जै.ब्रा. २.३९४

*द्वादशाहः-- स (प्रजापतिः) दीक्षाभिरेव पौर्णमासीरवारुन्धोपसद्भिरष्टकाः प्रसुतेनामावास्या। - जै.ब्रा. ३.२

* तस्य ह वा एतस्य सँवत्सरस्य साम्नोऽहोरात्राणि हिङ्कारोऽर्धमासाः प्रस्तावो मासा आदिर्ऋतव उद्गीथः पौर्णमास्यः प्रतिहारोऽष्टका उपद्रवोऽमावास्या निधनम् ॥२२॥ – षड्.ब्रा. ३.४.२२

*समृतयज्ञो वा एष यद्दर्शपूर्णमासौ – गो.ब्रा. २.२.२४

*अग्नये अग्नये पथिकृतेऽष्टाकपालं निर्वपेद्यस्य पौर्णमासी वामावस्या वातिपद्येत बहिष्पथं वा एष एति यस्य पौर्णमासी वामावस्या वातिपद्यतेऽग्निर्देवानां पथिकृत्  – काठ.सं. १०.५

*तं (चन्द्रमसं?) देवा यागत आप्यायिताः पुनरप्याप्याययन्त स पूर्णः पौर्णमासीमुपावसत्तत्पौर्णमास्याः पौर्णमासीत्वम्। - काठ. २३:१०

ऋषभं वाजिनं वयम् । पूर्णमासं यजामहे । स नो दोहताँ सुवीर्यम् । रायस्पोषँ सहस्रिणम् । प्राणाय सुराधसे । पूर्णमासाय स्वाहा । अमावास्या सुभगा सुशेवा । धेनुरिव भूय आप्यायमाना । सा नो दोहताँ सुवीर्यम् । रायस्पोषँ सहस्रिणम् । अपानाय सुराधसे । अमावास्यायै स्वाहा । - तैब्रा ३.७.५.