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सब प्राणियों को सोम की तलाश है। मनुष्य के पास जो अभी सर्वाधिक शुद्ध सोम है, वह गेहूं या गोधूम है। इस सोम में बहुत से दोष हैं। यह मधुर नहीं है। पूर्णतः पौष्टिक भी नहीं है। हम आधुनिक विज्ञान की सहायता से इसके गुणों में परिवर्तन करने की सोच सकते हैं।

दूसरा विकल्प श्री सुनील सम्भारे का है। उनको कोई लता मिली है जिसमें सोम के बहुत से गुण विद्यमान हैं। जैसे बहुश्रुत सोमलता होती है, इस लता में भी दीप्ति का गुण है। यह चन्द्रमा के अनुसार घटती – बढती है। ऐसे ही गुण उस सोम में भी होने चाहिएं जिसकी हमें तलाश है।

तीसरा विकल्प यह है कि हम स्वयं वृक्ष बन जाएं और वृक्ष की तरह अपने पैर रूपी जडों से अपना भोजन खींचें। सोमयाग में प्रवर्ग्य – उपसद इष्टि होती है। इस इष्टि के कृत्यों में वृक्ष से बहुत समानता है। इसमें पदों से ऊर्जा खींचने का क्रमिक प्रयास किया जाता है और उस ऊर्जा को सिर तक पहुंचाने का प्रयास किया जाता है। कहा गया है कि यह यज्ञ का सिर बनाना ही है। सिर बनाने से क्या तात्पर्य है। सिर सारी देह का नियन्त्रण करता है। यह ऐसे ही है जैसे राजा और उसकी प्रजा। जैसा राजा होगा, उसी के अनुसार प्रजा होगी। 12 दिन के प्रवर्ग्य के लिए कहा गया है कि पहले दिन का सिर सविता है। सविता अपनी प्रजा को सब कामों से पहले प्रेरणा देने वाला है। दूसरे दिन का सिर अग्नि है। यह देवों तक हवि पहुंचाने वाला है। तीसरे दिन का वायु है। इसका नियन्त्रण प्राणों पर है। सब प्राण इसके नियन्त्रण में आ जाने चाहिएं। इसके चाहे बिना मृत्यु नहीं हो सकती। चौथे दिन का सिर आदित्य है। रश्मियां इसकी प्रजा हैं। इसका अर्थ हुआ कि इस आदित्य से जो विचार आदि रश्मियां निकलेंगी, उन पर इसका नियन्त्रण होना चाहिए। पांचवें दिन का सिर चन्द्रमा है जिसका नियन्त्रण नक्षत्रों पर है। छठें दिन का सिर ऋतुएं हैं। सातवें दिन का धाता है। आठवें दिन का बृहस्पति, नवें दिन का धाता, दसवें का वरुण, एकादश का इन्द्र है जिसका राज्य त्रिष्टुप् छन्द पर है। बारहवें से सोम का सवन होता है।

पैरों से ऊर्जा खींचने का क्या अर्थ है। हम जो भी भोजन करते हैं, उसका रस सारी देह में वितरित होता है। बहुत कम अंश सिर में जाता है। पैरों में बहुत अंश जाता है, ऐसा अनुमान है। चाहें तो पैरों के इस अंश को शुद्ध होने का अवसर दे सकते हैं। कभी – कभी लोगों को स्फुरण होता है। इस स्फुरण से पैरों में पडी ऊर्जा शुद्ध होती है और सिर में पहुंचती है। जब पैर शुद्ध हो जाते हैं, बासी ऊर्जा उनमें से निकलकर सिर में पहुंच जाती है, तो कहते हैं कि सिद्ध पुरुषों को मीलों दूर से सिद्ध स्थल से लहरियां आने लगती हैं। बासी ऊर्जा को वैदिक साहित्य में सुरा नाम दिया गया है।

यह उल्लेखनीय है कि भोजन का जो भाग शुद्ध है, उसे सोम कहा गया है। जो अशुद्ध है, वह सोम का वृत्र भाग है।

जब सोम सुत्या होने लगती है, तो पैरों से ऊर्जा का आकर्षण करने की भी आवश्यकता नहीं रहती, ऐसा अनुमान है।

सोमयाग में पहले प्रवर्ग्य होते हैं, फिर सुत्या दिवस। इनके बीच में एक और कृत्य भी है जिसे अग्नीषोम कहते हैं। कहा गया है कि यह संक्रान्ति है, सोम भी है, अग्नि भी। अर्थात् सूर्य की किरण गर्म भी हो सकती है, ठंडी भी। यह अग्नीषोम गुह्य है। यह कार्य भी हो सकता है, कारण भी। इसका निहितार्थ होगा कि सुत्य दिवस में पहुंचने पर कारण शरीर ही बचता है। कारण शरीर में पहुंचने पर हम अपने कारण का निर्माण स्वयं कर सकते हैं।

प्रवर्ग्य पर सोचने से पहले प्रवर्ग्य शब्द का अर्थ समझ लेना उपयोगी होगा। प्र – वॄञ्। अपनी प्रजा पर नियन्त्रण, उसमें अपनी शक्ति का सेचन। हम अपनी प्रजा के स्वामी बनें। प्रजा को अपने नियंत्रण में लेने की आवश्यकता नहीं है। यह स्वाभाविक रूप से हो जाएगा।

 

 

 

महावीर पात्र का यह चित्र ज्योति अप्तोर्याम, गार्गेयपुरम्, कर्नूल, 20जनवरी से 1फरवरी 2015, श्री राजशेखर शर्मा के संग्रह से है।

 

 

महावीर पात्र में गौ पयः प्रक्षेप पर उत्पन्न ज्वाला का यह चित्र ज्योति अप्तोर्याम, गार्गेयपुरम्, कर्नूल, 20जनवरी से 1फरवरी 2015, श्री राजशेखर शर्मा के संग्रह से है।

 

 

 

Chanting of Sama 1-5

1.     साम सं1 का गायन घर्म अञ्जन के समय किया जाता है। अञ्जन से तात्पर्य महावीर पात्र का आहवनीय अग्नि पर घृत से अञ्जन से है। इस साम की तीन बार आवृत्ति की जाती है।

 
 
   
 
 साम सं.2 का गायन गार्हपत्य के समीप वाले प्रवर्ग्य खर पर रुक्मोपधान के समय किया जाता है। रुक्म/चांदी रखने के पश्चात् उस पर महावीर पात्र को स्थापित किया जाता है।

नियुत्वान् वायवा गह्यय ँ शुक्रो अयामि ते। गन्तासि सुन्वतो गृहम्॥

  

  साम सं 3 व 4 का गान महावीर पात्र के परितः अग्नि का अभीन्धन करते समय किया जाता है।

       साम सं 5 का गान महावीर पात्र पर सुवर्णोपधान के समय किया जाता है।

    

Chanting of Sama 1-5


साम सं 6 का गायन उस समय किया जाता है जब अध्वर्यु कहता है कि रुचितो घर्मः

साम सं 7 का गायन धेनु उपसृजन/धेनु के दोहन के समय किया जाता है।

स्वादिष्ठया मदिष्ठया पवस्व सोम धारया। इन्द्राय पातवे सुतः॥

साम सं 8 का गायन पयः आहरण काल में किया जाता है।

 अग्ने युङ्क्ष्वा हि ये तवाश्वासो देव साधवः।  अरं वहन्त्याशवः॥

साम सं9 का गायन घर्म में पयः सेचन काल में किया जाता है।

आ त्वा विशन्त्विन्दवः समुद्रमिव सिन्धवः। न त्वामिन्द्राति रिच्यते॥

 

साम सं 10 व 11 का गायन तब किया जाता है जब शफों से घर्म/महावीर पात्र का ग्रहण किया जाता है।

प्रथश्च यस्य सप्रथश्च नामानुष्टुभस्य हविषो हविर्यत्।

धातुर्द्युतानात् सवितुश्च विष्णो रथन्तरमा जभारा वसिष्ठः॥

 

Chanting of Samas 10-16


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