प्रतिपदा

टिप्पणी – अग्नि पुराण में मार्गशीर्ष प्रतिपदा को अग्नि की तथा कार्तिक, आश्विन् व चैत्र प्रतिपदा को ब्रह्मा की अर्चना का निर्देश है। कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा की ख्याति अन्नकूट, गोवर्धन पूजा, बलि उत्सव, कौमुदी आदि के कारण है जबकि चैत्र व आश्विन् शुक्ल प्रतिपदा तिथियों की ख्याति नवरात्रों के आरम्भ की तिथियां होने के कारण  है। पुराणों के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की रचना की गई। गरुड पुराण में अग्नि और ब्रह्मा के अतिरिक्त कुबेर, श्री व अश्विनौ की अर्चना का भी निर्देश है। पुराणों में प्रतिपदा को अग्नि व ब्रह्मा की अर्चना का जो निर्देश है, उसका उपयोग ब्राह्मण ग्रन्थों के कथनों की व्याख्या के लिए किया जा सकता है। अथवा, दूसरे पक्ष में, ब्राह्मण ग्रन्थों के कथनों का उपयोग पुराणों के कथनों की व्याख्या के लिए किया जा सकता है। सोमयाग में होता नामक ऋत्विज हविर्धान मण्डप के द्वार पर बैठकर सहस्र ऋचाओं द्वारा सभी छन्दों में सभी देवों की स्तुति करता है। इस कृत्य का नाम प्रातरनुवाक है। यह कृत्य ऐसे काल में किया जाता है जब पक्षियों का चहचहाना भी आरम्भ न हुआ हो। कहा गया है कि होता ऋत्विज जिस प्रतिपद का पाठ करता है, वह आपो रेवती क्षयथा हि वस्वः इति है। इसकी व्याख्या में कहा गया है कि इस काल में किसी देवता विशेष का आह्वान नहीं किया जा सकता। आपः सर्वा देवता हैं, अतः इस प्रतिपद के पाठ से सर्व देवों का आह्वान हो जाता है। इस विषय में यह समझने की आवश्यकता है कि होता ऋत्विज की अवर काष्ठा और परा काष्ठाएं क्या हैं। होता ऋत्विज अग्नि देवता का प्रतिनिधि होता है। होता का अर्थ है -- जो अग्नि में डाली गई आहुतियों को देवों तक पहुंचाने के लिए देवों का आह्वान करने में, उन्हें हूत करने में समर्थ हो। व्यावहारिक रूप में इस तथ्य को इस प्रकार समझा जा सकता है कि साधना का आरम्भ हमारी क्षुधा अग्नि से होता है। लक्ष्मीनारायण संहिता ३.१४२ में विभिन्न तिथियों में सर्पदंशन के फल के संदर्भ में कहा गया है कि प्रतिपदा को पादाङ्गुष्ठ में सर्पदंशन घातक होता है। यहां पादाङ्गुष्ठ से तात्पर्य मूलाधार समझना चाहिए। क्षुधाग्नि को मूलाधार की अग्नि कहा जा सकता है। इस अग्नि का विकास करके, इसकी स्थूलता को दूर करके इसे आत्मा के स्तर तक ले जाया जा सकता है, ऐसा प्रतीत होता है(जैमिनीय ब्राह्मण २.४६) । यह होता ऋत्विज की पराकाष्ठा कही जा सकती है। दूसरी ओर उद्गाता ऋत्विज के विषय में कहा गया है कि उद्गाता ऋत्विज शीर्ष से प्रतिपद तृच का गान करता है। शीर्ष को प्राणों का सर्वाधिक विकसित रूप माना जा सकता है। यह कथन संकेत करता है कि होता ऋत्विज आत्मा तक तक तो पहुंच सकता है, लेकिन आत्मा के परितः रहने वाले प्राणों का विकास करना होता ऋत्विज के वश में नहीं है। वह तो उद्गाता ऋत्विज ही कर सकता है। यही कारण है कि होता ऋत्विज को जिस प्रतिपद का पाठ करना होता है – आपो रेवतीः इत्यादि, उसमें प्राण आपः अवस्था में, अनिरुक्त अवस्था में ही हैं। जब पुराणों में प्रतिपदा तिथि के देवता के रूप में ब्रह्मा की अर्चना का निर्देश आता है, तो उससे तात्पर्य उद्गाता ऋत्विज की सामर्थ्य से हो सकता है जो प्राणों को निरुक्त रूप में व्यक्त कर सकता है। ब्राह्मण ग्रन्थों से संकेत मिलता है कि अग्नि ही विराट् रूप को प्राप्त होने पर सूर्य या ब्रह्मा बनता है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार हमें जो क्षुधा का अनुभव होता है, उसका कारण यह है कि हमारी आन्त्रों की बाहरी कला में अम्लीयता अधिक हो जाती है जो क्षुधा की वेदना उत्पन्न करती है। ऐसा भी संभव है कि इस अग्नि को विभिन्न अंगों की बाहरी कलाओं में स्थान्तरित कर दिया जाए। हृदय के बाहर भी एक कला होती है जिसे पैरिकार्डियम कहते हैं। ऐसे ही अन्य अंगों के परितः भी बाह्य कलाएं होती होंगी। जब क्षुधाग्नि का स्थान्तरण होने लगता है तो वह मुख पर तेज के रूप में भी दिखाई देती है, जैसा कि महापुरुषों के चित्रों में उनके मुख के परितः आभामण्डल दिखाया जाता है। यह अग्नि का क्रमिक रूप से ब्रह्मा बनना है। इसी तथ्य को अग्निहोत्र के रूप में भी समझा जा सकता है जहां मन्त्र बोला जाता है – सूर्यो ज्योतिः ज्योतिः सूर्यः स्वाहा। अग्निर्ज्योतिः ज्योतिरग्निः स्वाहा इत्यादि।

कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को द्यूत प्रतिपदा कहा जाता है। इस तिथि को अन्नकूट उत्सव, गोवर्धन पूजा, गौ पूजा, बलि के राज्य का महत्त्व है। द्यूत प्रतिपदा कहने से संकेत मिलता है कि इस तिथि में स्वाभाविक रूप से स्थित प्रकृति में प्राण बहुत जाग्रत नहीं हैं, सोए हुए हैं तथा अचेतन मन की स्थित व्याप्त है। अचेतन मन को इडा नाम दिया जाता है। इस विषय में शतपथ ब्राह्मण १.८.१.२४ का यह आख्यान महत्त्वपूर्ण है कि पहले मनु ने इडा को अपनी इष्टि के माध्यम से उत्पन्न किया। मनु की पुत्री बन जाने पर वह इडा चेतन हो जाती है, गौ का रूप हो जाती है, सूर्य की किरणों का संग्रह करने में, धारण करने में समर्थ हो जाती है। अतः जब पुराणों में प्रतिपदा तिथि को गौ के महत्त्व का कथन आता है, उससे तात्पर्य यही हो सकता है कि अचेतन मन को चेतन बनाकर, अथवा सोए हुए प्राणों को जगाकर, अथवा सोई हुई वाक्शक्ति को जगाकर उन्हें गौ का रूप देना है। बलि के राज्य को वाल की, बिखरे हुए प्राणों की स्थिति माना जा सकता है जिन्हें एकत्र करना है। कार्तिक प्रतिपदा को मार्गपाली बन्धन करके उसके नीचे से ग्राम्य पशुओं का पारण कराने के निर्देश के संदर्भ में, हो सकता है कि पुराणों में मार्गपाली से तात्पर्य वैदिक साहित्य के पथ्यास्वस्ति कृत्य से हो। पथ्यास्वस्ति कृत्य सोमयाग के प्रायणीय व उदयनीय नामक दिवसों में सम्पन्न किया जाता है। यह दिवस क्रमशः प्रथम तथा अन्तिम हैं। पथ्यास्वस्ति के विषय में ऐतरेय ब्राह्मण १.७ में कथन है कि इस कृत्य में प्राची दिशा में पथ्या देवता का यजन किया जाता है जिससे सूर्य प्राची दिशा में उदित हो और पश्चिम में अस्त हो। दक्षिण दिशा में अन्न प्राप्ति हेतु अग्नि का, पश्चिम दिशा में पशु प्राप्ति हेतु सोम/आपः का, उत्तर दिशा में सविता देवता का और उत्तमा/ऊर्ध्व दिशा में अदिति का। उत्तमा/ऊर्ध्वा दिशा में अदिति का यजन इसलिए किया जाता है जिससे सूर्य पृथिवी पर वर्षा कर सके और पृथिवी के रस को खींच सके।  यदि पथ्यास्वस्ति और मार्गपाली कृत्य एक ही हैं तो यह प्रतिपदा को प्रायणीय और उदयनीय दिवसों के आधार पर समझने के लिए एक नया अध्याय खोलता है। प्रतिपदा तिथि को अन्नकूट उत्सव से सभी परिचित हैं। लेकिन ऐतरेय ब्राह्मण के कथनानुसार तो दक्षिण दिशा में अग्नि के यजन से ही अन्न प्राप्त हो सकता है। इस कथन को इस प्रकार समझा जा सकता है कि वैदिक यज्ञों में दक्षिण दिशा में दक्षिणाग्नि या अन्वाहार्यपचन अग्नि का खर होता है(अन्वाहार्यपचन शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य)। देवों को तो मधु, घृत आदि अन्नाद्य की आहुति दी जाती है, लेकिन ऋत्विजों को जो व्रीहि की दक्षिणा दी जाती है, उसका ओदन इसी अग्नि पर पकाया जाता है। अथर्ववेद में बार्हस्पत्य ओदन, ब्रह्मौदन आदि कईं प्रकार के ओदनों के सूक्त हैं। यह ओदन उदान प्राण का रूप लगते हैं। दक्षिणाग्नि को त्रिनेत्र की अग्नि कहा गया है। अतः यह संभव है कि पुराणों में जिस अन्नकूट या अन्न के पर्वत की बात कही जा रही है, वह यह उदान प्राण रूपी ओदन हो जिसका पाक तीसरे नेत्र की अग्नि द्वारा होता है। मार्गपाली बन्धन और उसके नीचे से पशुओं के पारण उत्सव के संदर्भ में, छान्दोग्य उपनिषद में विभिन्न प्रकार के मार्गों का उल्लेख है। यदि सूर्य के मार्ग के विषय में कहा जाए तो सूर्य के मार्ग को भक्ति की पांच अवस्थाओं में विभाजित किया गया है – अज, अवि, गौ, अश्व और पुरुष। इनमें पहले चार तो चतुष्पाद हैं, लेकिन पांचवां पुरुष द्विपाद है जिसका अर्थ है कि उसकी गति केवल ऊर्ध्व-अधो दिशाओं में है, अन्य चार दिशाओं में नहीं। विभिन्न स्थितियों में विभिन्न प्रकार के मार्ग हो सकते हैं। सभी मार्गों में स्वस्ति होना अपेक्षित है। प्रतिपदा को बलि के राज्य उत्सव के कथन के संदर्भ में, वैदिक साहित्य में तो प्रतिपद शब्द के साथ बलि का उल्लेख मिलता नहीं है। बलि को इस प्रकार समझ सकते हैं कि भूतों को बलि दी जाती है, ऋत्विजों को दक्षिणा। बलि दान में यह आवश्यक नहीं कि जीवन की धनात्मक स्थिति बनी ही रहे। यह तो बलपूर्वक ग्रहण है। बलि की पराकाष्ठा दक्षिणा में रूपान्तरित होने में है। 

प्रतिपदा का व्यावहारिक स्वरूप यह हो सकता है कि प्रत्येक कार्य को सम्पन्न करने से पूर्व यह ध्यान देना चाहिए कि अमुक कृत्य को सम्पन्न करने के लिए हमारी समग्र चेतना किस सीमा तक हमारे साथ है। इस समग्र चेतना को अग्नि नाम दिया जा सकता है। इस समग्र चेतना के पद प्राणों पर जहां-जहां पडेंगे, वहीं-वहीं कार्य १०० प्रतिशत दक्षता से सम्पन्न होता चला जाएगा। 

वराह पुराण १८.१८ में उल्लेख है कि अग्नि की उत्पत्ति कैसे हुई। पहले पांच तन्मात्राओं अग्नि, वायु, आकाश, आपः के संघात से कठिन पृथिवी की उत्पत्ति हुई जिसमें नारायण ने विविध प्रजा की सृष्टि की। फिर उस देव को महान् कोप उत्पन्न हुआ जिससे दहनात्मक अग्नि की उत्पत्ति हुई। जब उस अग्नि ने अपना भोजन मांगा तो उसे तीन रूपों में तृप्ति होने का वरदान दिया गया। एक रूप में तृप्त होकर वह देवों को हवि का वहन करता है। दूसरे रूप में वह दक्षिणा को, दक्षता को देवताओं को प्राप्त कराता है। तीसरे रूप में वह गृहपति बनकर गृह/शरीर की आवश्यकताओं को पूरा करता है। फिर उस अग्नि ने तिथि की मांग की जिससे उसकी ख्याति जगत में हो। तब ब्रह्मा ने उत्तर दिया -- देवानामथ यक्षाणां गंधर्वाणां च सत्तम। आदौ प्रतिपदा येन त्वमुत्पन्नोऽसि पावक। त्वत्पदात्प्रातिपदिकं सम्भविष्यन्ति देवताः। अतस्ते प्रतिपन्नाम तिथिरेषा भविष्यति। - वराह पुराण १९.४

इस श्लोक में कहा जा रहा है कि पहले प्रत्येक देवता के पद से अग्नि की उत्पत्ति हुई और फिर अग्नि के पद से देवताओं की उत्पत्ति हुई। पद के विषय में कहा जा चुका है कि जो ब्रह्माण्ड के भूतों को पाद देता है, उनमें स्फुरण उत्पन्न करता है, वह पद है( यहां यह उल्लेख करना उपयुक्त होगा कि वैदिक निघण्टु का अन्तिम अध्याय पद नामानि का है जिसकी अभी तक कोई समुचित व्याख्या नहीं हो सकी है)। यह पद से उत्पत्ति ही मृत्यु से बचने का उपाय है। ऐतरेय ब्राह्मण ३.१४ इत्यादि में सोमयाग के विभिन्न चरणों में मृत्यु से बचने के लिए होता रूप अग्नि किस-किस कृत्य का प्रतिपादन करता है, इसका उल्लेख है। अग्नि अपना पद किस प्रकार रखता है, इसे कर्मकाण्ड में रथन्तर नाम दिया गया है। उदाहरण के लिए, कहा जाता है कि चन्द्रमा में जो कृष्ण भाग दिखाई पडता है, वह वह है जिसे पृथिवी ने अपने तेज से चन्द्रमा में स्थापित किया है। ऐतरेय ब्राह्मण ६.३३ में यज्ञ को अयातयाम बनाने के संदर्भ में, आयु वर्धन के संदर्भ में ऐतश प्रलाप का उल्लेख है। शौनकीय अथर्ववेद काण्ड २०.१२९ से लेकर २०.१३२ तक के सूक्तों की संज्ञा ऐतश प्रलाप है(एता अश्वा आ प्लवन्ते। प्रतीपं प्राति सुत्वनम् इत्यादि)। इन सूक्तों की एक व्याख्या श्री जगन्नाथ वेदालंकार द्वारा की गई है(कु्न्तापसूक्तसौरभम्, गुरुगङ्गेश्वर-चतुर्वेदप्रकाशन संस्थानम्, श्रौतमुनिनिवासः, गांधीमार्गः, वृन्दावनम्, मथुरा)। इस भाष्य के अनुसार इस मन्त्र में अश्वाः शब्द स्त्रीलिंग में है। यह ध्यान देने योग्य है कि जहां भी अश्व(श्वः, भविष्य से रहित) की स्थिति होगी, वहीं दक्षता अधिकतम होगी। प्रतीप स्वर्ग लोक को भी कहते हैं।    

प्रतिपद शब्द ऋग्वेद में कदाचित् ही प्रकट हुआ है। प्रतिपद् तथा प्रतिपद्यते शब्दों का व्यवहार मुख्य रूप से ब्राह्मण ग्रन्थों में ही हुआ है। लेकिन इन ग्रन्थों में कहीं भी प्रत्यक्ष रूप से इसके अभिप्राय का उल्लेख नहीं किया गया है। “आज की गोष्ठी का प्रतिपाद्य विषय यह है”, ऐसा वाक्य व्यवहार में तो बहुत प्रचलित है। लेकिन इसका अर्थ छिपा हुआ है जिसे केवल पुराणों ने भी बहुत सूक्ष्म रूप से ही प्रकट किया है। पुराणों और ब्राह्मण ग्रन्थों द्वारा प्रदत्त सूचनाएं एक दूसरे की पूरक हैं। यज्ञ में सामवेद के अनुसार स्तोत्र गान के पश्चात् अन्य वेदों जैसे ऋग्वेद की ऋचाओं के द्वारा शस्त्र कर्म सम्पन्न किया जाता है। प्रतिपादन शस्त्रों द्वारा ही होता है। जैमिनीय ब्राह्मण ३.२७९ का कथन है कि स्तोत्रिय से स्वर्ग लोक का रेतः इस लोक में रखा जाता है, जबकि अनुरूप से इस लोक में उसका प्रतिपादन/जनन किया जाता है। पुराणों में प्रतिपद् शब्द की व्याख्या प्रतिपदा तिथि के माध्यम से की गई है।

अश्विनौ के प्रतिपदा तिथि के देवता होने के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि अश्विनौ भिषक् हैं और जहां भी भिषक् कर्म की, मृत्यु से बचाने की आवश्यकता होगी, वहां अग्नि का अश्विनौ रूप देवता होगा।

          प्रति-पदा शब्द पर सममिति के सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुए(श्री जे.ए.गोवान द्वारा व्याख्या) भी सोचा जा सकता है। इस पृथिवी पर जो भी द्रव्य है, वह असममित है, उसकी सममिति ऊर्जा के कहीं अदृश्य हो जाने के कारण लुप्त हो गई है। इस सममिति का पुनः पूरण किया जा सकता है(कुछ पूरण सूर्य की किरणों द्वारा स्वाभाविक रूप में भी हो जाता है)। यह प्रति-पद घटना है। वैदिक कर्मकाण्ड में इसे बृहद्-रथन्तर नाम दिया गया है।

 

संदर्भ

*कश्छन्द॑सां॒ योग॒मा वे॑द॒ धीरः॒ को धिष्ण्यां॒ प्रति॒ वाचं॑ पपाद। कमृ॒त्विजा॑मष्ट॒मं शूर॑माहु॒र्हरी॒ इन्द्र॑स्य॒ नि चि॑काय॒ कः स्वि॑त्॥ - ऋ. १०.११४.९

*पंचम चिति मन्त्राः -- प्र॒ति॒पद॑सि प्रति॒पदे॑ त्वानु॒पद॑स्यनु॒पदे॑ त्वा सं॒पद॑सि स॒म्पदे॑ त्वा॒ तेजो॑ऽसि॒ तेज॑से त्वा॥ - वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता १५.८

*तदु घृताच्येति – देवाञ् जिगाति सुम्नयुः इति। - - - -सर्वं वा अनिरुक्तम्, सर्वेणैवैतत्प्रतिपद्यते। - श.ब्रा. १.४.१.२१

*मनु की इष्टि में इडा की उत्पत्ति का आख्यान और दर्शपूर्णमास याग में होता द्वारा इडाकर्म में इडा का आह्वान् --- अथ प्रतिपद्यते। इडोपहूता(१) उपहूतेडा(२)उपो अस्मान् इडा ह्वयताम्(३) इडोपहूता(४) इति। तदुपहूतामेवैनामेतत् सतीं प्रत्यक्षमुपह्वयते। या वै सासीद् – गौर्वै सासीद्। चतुष्पदी वै गौः।– श.ब्रा. १.८.१.२४

*प्राणेष्वेव हूयते – होतरि त्वद्, यजमाने त्वद्, अध्वर्यौ त्वद्।- - - - अथ यत्र प्रतिपद्यते – तच्चतुर्धा पुरोडाशं कृत्वा बर्हिषदं करोति। तदत्र पितॄणां भाजनेन। चतस्रो वा अवान्तरदिशः। अवान्तरदिशो वै पितरः। - श.ब्रा. १.८.१.४०

*अथ प्रतिपद्यते । इदं द्यावापृथिवी भद्रमभूदिति। भद्रं ह्यभूद् – यो यज्ञस्य संस्थामगन्। - श.ब्रा. १.९.१.४

*स प्रतिपद्यते – तच्छंयोरावृणीमहे इति। तां यज्ञस्य संस्थामावृणीमहे – यां शंयुर्बार्हस्पत्योऽवेदित्येवैतदाह। - श.ब्रा. १.९.१.२६

*यथाऽन्यद्वदिष्यन् सोऽन्यद्वदेत्, यथाऽन्येन पथैष्यन् सोऽन्येन प्रतिपद्येत, एवं तत् – य एतं चातुष्प्राश्यमोदनं पचेत्। - श.ब्रा. २.१.४.६

*अग्निहोत्र के माध्यम से रेतः सिंचन -- स वा उपवत्या प्रतिपद्यते – इयं वा उप द्वयेनेयमुप। यद्धीदं किञ्च जायते – अस्यां तदुपजायते – अथ यत् न्यृच्छति – अस्यामेव तदुपोप्यते। तदह्ना रात्र्या भूयो-भूय एवाक्षय्यं भवति, तदक्षय्येणैवैतद् भूम्ना प्रतिपद्यते। - श.ब्रा. २.३.४.९

उपवत्या – उ॒प॒प्र॒यन्तो॑ ऽअध्व॒रं मन्त्रं॑ वोचेमा॒ग्नये॑। आ॒रे ऽअ॒स्मे च॑ शृण्व॒ते॥ (वा.सं. ३.११)

*इषिता दैव्या होतारो भद्रवाच्याय प्रेषितो मानुषः सूक्तवाकाय इति। सूक्तवाकं होता प्रतिपद्यते। अथैता उभावेव प्रस्तरौ समुल्लुम्पतः, उभावनुप्रहरतः, उभौ तृणे अपगृह्योपासाते – यदा होता सूक्तवाकमाह। - श.ब्रा. २.५.२.४२, २.६.१.४५

३.३.१.[१०]

अथ पत्न्यै पदं प्रतिपराहरन्ति । गृहा वै पत्न्यै प्रतिष्ठा तद्गृहेष्वेवैनामेतत्प्रतिष्टायां प्रतिष्ठापयति तस्मात्पत्न्यै पदम् प्रतिपराहरन्ति। तां नेष्टा वाचयति । तोतो राय इत्यथैनां सोमक्रयण्या संख्यापयति वृषा वै सोमो योषा पत्न्येष वा अत्र सोमो भवति यत्सोमक्रयणी मिथुनमेवैतत्प्रजननं क्रियते तस्मादेनां सोमक्रयण्या संख्यापयति

 

*एकादश प्रयाजाः – अथोल्मुकमादायाग्नीत् पुरस्तात्प्रतिपद्यते। अग्निमेवैतत्पुरस्तात्करोति। अग्निः पुरस्तान्नाष्ट्रा रक्षांस्यपघ्नन्नेति। - श.ब्रा. ३.८.१.९

*वैप्रुषहोमानन्तरं बहिष्पवमानार्थं-- – अथ स्तीर्णायै वेदेः द्वे तृणेऽअध्वर्युरादत्ते। तावध्वर्यू प्रथमौ प्रतिपद्येते प्राणोदानौ यज्ञस्य। अथ प्रस्तोता वागेव यज्ञस्य। अथोद्गाता आत्मैव प्रजापतिर्यज्ञस्य। अथ प्रतिहर्त्ता भिषग्वा व्यानो वा। - श.ब्रा. ४.२.५.३

*उदयनीयेष्टिः – स वै पथ्यामेवाग्रे स्वस्तिं यजति। तद्देवा अप्रज्ञायमाने वाचैव प्रत्यपद्यन्त। वाचा हि मुग्धं प्रज्ञायते। - श.ब्रा. ४.५.१.३

*अभिषेकोत्तरकर्मणि रथस्याश्वचतुष्टयोपेतत्वं – तं चतुर्युजं युनक्ति। स जघनेन सदोऽग्रेण शालां येनैव दक्षिणा यन्ति, तेन प्रतिपद्यते। - श.ब्रा. ५,४,३,६

सः – अध्वर्युः। “सदो जघनेन” -- सदोमण्डपस्य पश्चिमभागे। अग्रेण शालां – प्राग्वंशस्याग्रभागे। येनैव – येन मार्गेण। दक्षिणाः – दक्षिणार्थं दीयमाना गावः। यन्ति – गच्छन्ति। तेन प्रतिपद्यते – रथेन सहितं प्रविशेदित्यर्थः। - सायणाचार्य

*अथ दक्षिणानायच्छति। सोऽग्रेण यूपं दक्षिणेन वेदिम् – येनैव दक्षिणाः यन्ति – तेन प्रतिपद्यते। - श.ब्रा. ५.४.३.१३

*अथ कस्मात्पुरस्ताद्ग्रहाणामृचश्च सामानि चोपदधातीति। संस्था वै कर्मणोऽन्वीक्षितव्या। ऋचा वै प्रतिपदा ग्रहो गृह्यते, ऋचि साम गीयते। - श.ब्रा. ८.१.३.३

प्रतिपद्यते देवता स्वरूपं ज्ञायते इति प्रतिपद् - सायण

*वसोर्धाराहोमः – अथो इदं च मे देहि, इदं च म इति। सा यदैवैषा धाराऽग्निं प्राप्नुयाद् – अथैतद्यजुः प्रतिपद्येत। - श.ब्रा. ९.३.२.५

*सर्वचित्यन्तसाधारणोपस्थानम् – तद्धैके – कर्मणः कर्मण एवैतां प्रतिपदं कुर्वते। अपहतपाप्मान एतत्कर्म करवामहा इति। - श.ब्रा. ९.५.२.१२

*स य उपदग्धेन हविषा यजते, अग्निना ह स ब्रह्मणो द्वारेण प्रतिपद्यते। सोऽग्निना ब्रह्मणो द्वारेण प्रतिपद्य ब्रह्मणः सायुज्यं सलोकतां जयति। (२)। अथ यो विपतितेन हविषा यजते, वायुना ह स ब्रह्मणो द्वारेण प्रतिपद्यते। स वायुना ब्रह्मणो द्वारेण प्रतिपद्य ब्रह्मणः सायुज्यं सलोकतां जयति।(३)। अथ योऽशृतेन हविषा यजते, अद्भिर्ह स ब्रह्मणो द्वारेण प्रतिपद्यते। सोऽद्भिर्ब्रह्मणो द्वारेण प्रतिपद्य ब्रह्मणः सायुज्यं सलोकतां जयति।(४)। अथ य उपरक्तेन हविषा यजते, चंद्रमसा ह स ब्रह्मणो द्वारेण प्रतिपद्यते। स चंद्रमसा ब्रह्मणो द्वारेण प्रतिपद्य ब्रह्मणः सायुज्यं सलोकतां जयति।(५)। अथ यो लोहितेन हविषा यजते, विद्युता ह स ब्रह्मणो द्वारेण प्रतिपद्यते। स विद्युता ब्रह्मणो द्वारेण प्रतिपद्य ब्रह्मणः सायुज्यं सलोकतां जयति।(६)। अथ यः सुशृतेन हविषा यजते, आदित्येन ह स ब्रह्मणो द्वारेण प्रतिपद्यते। स आदित्येन ब्रह्मणो द्वारेण प्रतिपद्य ब्रह्मणः सायुज्यं सलोकतां जयति।(७) – श.ब्रा. ११.४.४.२

*- - - विप्रुषां होमं हुत्वा सन्तनिं च बहिष्पवमानेन स्तुत्वा अहरेव प्रतिपद्याध्वा इति। - श.ब्रा. ११.५.५.११

प्रतिपद्याध्वा – प्रारभध्वम्(सायण)

*नियुक्तेषु पशुषु प्रोक्षणीरध्वर्युरादत्ते। अश्वं प्रोक्षिष्यन्नन्वारब्धे यजमान आध्वरिकं यजुरनुद्रुत्याश्वमेधिकं यजुः प्रतिपद्यते। - श.ब्रा. १३.२.७.१

आध्वरिकं यजु - अद्भ्यस्त्वौषधीभ्योऽनु त्वा इति- वा.सं. ६.९)। अनुद्रुत्य – उच्चार्य। आश्वमेधिकं यजु – वायुष्ट्वा पचतैरवतु इति(वा.सं. २३.१३-१६)। हरिस्वामी कृत भाष्य

*घर्मसंदीपन ब्राह्मणम्—अप्रमत्त आस्स्व। यज्ञस्य शिरः प्रतिधास्याम इति। होतरभिष्टुहीति। यज्ञो वै होता। तमेवैतदाह। यज्ञस्य शिरः प्रतिधेहीति। प्रतिपद्यते होता। ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्तात् इति(वा.सं. १३.३)। असौ वा आदित्यो ब्रह्माहरहः पुरस्ताज्जायते। एष उ प्रवर्ग्यः। - - -  अथ प्रोक्षति। - श.ब्रा. १४.१.३.२, द्र. ऐ.ब्रा. १.१९

*तद्धैतत्पश्यन्नृषिर्वामदेवः प्रतिपेदे – अहं मनुरभवं सूर्यश्च इति(ऋ.४.१६.१) – श.ब्रा. १४.१.२.२२

*ज्योतिर्ब्राह्मणं – आराममस्य पश्यन्ति न तं कश्चन पश्यति इति। तं नायतं बोधयेदित्याहुः। दुर्भिषज्यं हास्मै भवति। यमेष न प्रतिपद्यते। - श.ब्रा. १४.७.१.१५

आरामं – स्वप्ने अस्यात्मनः आक्रीडनं। आयतं – तमात्मानं सुप्तं भृशं(सहसा) न बोधयेत्। यमेष न प्रतिपद्यते – यं इन्द्रियदेशं एषः आत्मा सहसा प्रबोधितः पुनर्न प्रवेशयति। तदा अस्मै देहाय स्फुटं दुर्भिषज्यं भवति। - वासुदेव ब्रह्मभगवत् टीका

१४.९.१.[२]

वेत्थ यथेमाः प्रजाः  प्रयत्यो विप्रतिपद्यान्ता३ इति नेति होवाच वेत्थ यथेमं लोकं पुनरापद्यान्ता३ इति नेति हैवोवाच वेत्थ यथासौ लोक एवं बहुभिः पुनः पुनः प्रयद्भिर्न सम्पूर्यता३ इति नेति हैवोवाच

 

१४.९.१.[३]

वेत्थ यतिथ्यामाहुत्यां हुतायाम्  आपः पुरुषवाचो भूत्वा समुत्थाय वदन्ती३ इति नेति हैवोवाच वेत्थो देवयानस्य वा पथः प्रतिपदं पितृयाणस्य वा यत्कृत्वा देवयानं वा पन्थानं प्रतिपद्यते पितृयाणं वा

 

 

*उपास्मै गायता नरः इति ग्रामकामो भूतिकामः प्रजननकामः प्रतिपदं कुर्वीत। - - - उपो षु जातम् अप्तुरम् इति प्रजाकामः प्रतिपदं कुर्वीत। उपेव वा आत्मन् प्रजया पशुभिः प्रजायते। एताम् एवापरेद्युः प्रतिपदं कुर्वीत। - जै.ब्रा. १.९०

*पवस्व वाचो अग्रियः इति श्रैष्ठ्यकामः प्रतिपदं कुर्वीत। - - - -ता एनं सृष्टा नापाचायन्। सोऽकामयत श्रैष्ठ्यम् आसां प्रजानां गच्छेयम् इति। स एतां प्रतिपदम् अपश्यत्।- - -  - जै.ब्रा. १.९१

*एते असृग्रम् इन्दवः इति बहूनां संयजमानानां प्रतिपदं कुर्यात्। - - -एते इत्य् एव देवान् असृजत असृग्रम् इति मनुष्यान् इन्दवः इति पितॄन् तिरः पवित्रम् इति ग्रहान् आशवः इति स्तोमान् विश्वानि इत्य् उक्थानि अभि सौभगा इत्य एवैनान् जातान् सौभाग्येनाभ्यानक्। प्रजापतिर् एव भूतः प्रजास् सृजते य एवं विद्वान् एतया प्रतिपदोद्गायति। - - -असृक्षत प्र वाजिनः इति त्रयाणां संयजमानानां प्रतिपदं कुर्यात्। - जै.ब्रा. १.९४

*इन्द्रश् च सोम गोपती ईशाना पिप्यतं धियः इति। इन्द्रश् च वै सोमश् चाकामयेतां सर्वासां प्रजानां ऐश्वर्यम् आधिपत्यम् अश्नुवीवहीति। ताव् एतां प्रतिपदम् अपश्यताम् .- - -इन्द्रायेन्दो मरुत्वते इति राजन्यबन्धोः प्रतिपदं कुर्यात्। ऐन्द्रो वा राजन्यो मारुतीर् विशः। - जै.ब्रा. १.९५

*अपघ्नन् पवते मृधः इत्य् अभिशस्यमानस्य प्रतिपदं कुर्यात्। मृधो वा एतम् अजुष्टास् सचन्ते यम् अभिशंसन्ति। अप पापीर् मृधो हते। अप सोमो अराव्णः इति।- - - - आग्नावारुणीम् आमयाविनो ज्योगामयाविनः प्रतिपदं कुर्यात्। अग्निना वा एष वरुणेन गृहीतो भवति य आमयावी ज्योगामयावी। - - -यस्यां वर्षीयस्याम् ऋचि ह्रसीयो ह्रसीयस्यां वा वर्षीयस् ताम् आनायकामः प्रतिपदं कुर्वीत। - - -एष देवो अमर्त्यः इति प्रतिपदं कुर्वीत यः कामयेताहम् एवैकधा श्रेष्ठस् स्वानां स्यां रुचम् अश्नुवीयेति। एष एषः इत्य् एवैनां ज्यैष्ठ्याय श्रैष्ठ्यायाभिवदति।– जै.ब्रा. १.९६

*मरुत्वतीः प्रतिपदो भवन्ति। मरुत्वन्तं ग्रहं गृह्णन्ति। मरुत्वान् वा इन्द्रो वृत्रम् अहन् वार्त्रहत्याय़। - जै.ब्रा. १.११६

*तौ(बृहस्पति, उशना) हैतत् प्रतिपेदाते – स्वायुधः पवते देव इन्दुर् अशस्तिहा वृजना रक्षमाणः। पिता देवानां जनिता सुदक्षो विष्टम्भो दिवो धरुणः पृथिव्याः॥ - जै.ब्रा. १.१२६

*इन्द्रो वै निधनम्। इन्द्रो वै श्रेष्ठी देवतानाम्। यत्र वै श्रेष्ठी ग्रामाग्रं प्रतिपद्यते न वै तत्र रिष्टिर् अस्ति। - जै.ब्रा. १.३०४

*तद् आहुस् तम् ईं हिन्वन्त्य् अग्रुव इत्य् एवैतस्याह्नः प्रतिपत् कार्येति। तम् अर्केभिस् तं सामभिर् इति शीर्ष्णस्, तद् इद् आस भुवनेषु ज्येष्ठम् इत्य् आत्मनः। - - - तद् आहुर् अभ्युदिते वैषा प्रतिपत्। योगे त्व् आगते पवस्व वाचो अग्रिय इत्य् एव प्रतिपत् कार्येति। - - - जै.ब्रा. २.९

*तद् आहुर् आत्मनाग्रे प्रतिपद्यम् अथ शीर्ष्णा। आत्मा वा अग्रे ऽथ शिर इति. तद् उ ह तद् यथा कर्तं पतेत् तादृक् तद् यत् पञ्चविंशाद् आत्मनस् त्रिवृच् छिरो ऽभि प्रत्यवरोहेयुः। शीर्ष्णैव प्रतिपद्यम्। सर्वा ह वा एतद् देवता स्तोत्रं प्रत्युपतिष्ठन्ति – मया प्रतिपत्स्यते मया मयेति। स यदि शीर्ष्णा प्रतिपद्येत यैव शिरः प्रतिपद्देवता भवति ताम् एव तेनर्ध्नोति। यदि पक्षेण यैव पक्षौ प्रतिपद्देवता भवति ताम् एव तेनर्ध्नोति। यदि पुच्छेन यैव पुच्छं प्रतिपद्देवता भवति ताम् एव तेनर्ध्नोति। यद्य् आत्मना यैवात्मनः प्रतिपद्देवता भवति ताम् एव तेनर्ध्नोति। अन्तरिता इतरा देवता भवन्ति। सर्वा उ ह वै देवता शीर्षन्न एव - - - जै.ब्रा. २.१६-१७

*प्राणो वै गायत्रः। गायत्रं शिर एव। तदायतनो वै प्राणो यच् छिरः। तस्मात् त्रिवृतैव शीर्ष्णा प्रतिपद्यम् अथ पञ्चदशेन पक्षेणाथ सप्तदशेनाथैकविंशेन पुच्छेनाथ पञ्चविंशेनात्मना। - जै.ब्रा. २.१८

*शीर्ष्णोद्गाता प्रतिपद्यत आत्मना होता। यां ह्य् एव प्राह तया प्रतिपद्यते। अथ यद् अन्यां प्राहान्यया प्रतिपद्यते, विलोम तत्। अथ हैक आत्मनैवाग्रे प्रतिपद्यन्ते। तद् उ होवाच शाट्यायनिर् यथान्धो द्वारम् ऋच्छेत् तादृक् तद् इति। - जै.ब्रा. २.४६

*तस्य युवं हि स्थ स्वःपती इत्य् एषो प्रतिपत् कार्या। एषा वै द्वयोस् संयजमानयोः प्रतिपत्। तद् उ वा आहुः पवस्व वाचो अग्रिय, उपास्मै गायता नर इत्य् एते एव प्रतिपदौ कार्ये। एते वाव द्वयोः संयजमानयोः प्रतिपदौ। - जै.ब्रा. २.९६

*तस्य आहुर् दविद्युतत्या रुचेत्य् एव प्रतिपदं कार्याम् । एषा वै गणिनी प्रतिपद् बहुरूपा। - - - तद् उ वा आहुः पवस्व वाचो अग्रिय, उपास्मै गायता नर इत्य् एते एव प्रतिपदौ कार्ये। एते वाव गणिन्यौ प्रतिपदौ बहुरूपे। - जै.ब्रा. २.१०३

*तस्य रेवतीष्व् अग्निष्टोमसाम भवति। आपो वै रेवतयः। - - -तद् यथा जरत्कक्षम् अग्निनोपदीप्य तम् अद्भिर् उपसिञ्चेत्, तस्मिन् कल्याण्य ओषधयो जायेरंस्, तासु पशवो रमेरन्न्, एवं हैवास्मिन् सर्वे पशवो रमन्ते। तस्याग्न आयूंषि पवस् इत्य् एषाग्निपावमानी प्रतिपद् भवति। तद् आहुर् वीव वा एतैः प्राणैर् ऋध्यन्ते ये पावमानीभिः प्रतिपद्यन्त इति। तद् यद् एषाग्निपावमानी प्रतिपद् भवतीति – प्राणो वै वायुः – प्राणैर् एव तत् समृद्ध्यन्ते। अग्ने पावक रोचिषेत्य् – अन्नं वै पावकम् – अन्नाद्येनैवैनं तत् समृद्ध्यन्ति। -- - -जै.ब्रा. २.१३७

*तद् यद् एता नानारूपाः प्रतिपदो भवन्ति पृष्ठान्य् एवैतत् प्रातस्सवने युक्तानि। तानि माध्यन्दिने सवने ऽभ्यारोहन्ति। तद् आहुर् वीव वा एते प्राणैर् ऋध्यन्ते ये पवस्विनीभिः प्रतिपद्यन्त इति। तद् यद् एषा वायव्या प्रतिपद् भवति – प्राणो वै वायुः – प्राणैर् एव तत् समृध्यन्ते। - जै.ब्रा. २.१८४

*तद् उ वा आहुः पवस्व वाचो ऽग्रिय, उपास्मै गायता नरः, पवमानस्य ते कव इति प्रतिपदो भवन्ति। पवमाने रथन्तरं प्रोहन्ति। - जै.ब्रा. ३.११

*पवस्व वाचो अग्रिय इति प्रतिपदो भवन्ति। - जै.ब्रा. ३.२०

*द्वादशाहे चतुर्थमहः – जगत्यैतद् अहः प्रतिपद्यन्ते। समाद् एवैतत् समम् उपयन्ति। - जै.ब्रा. ३.५९

*षष्ठम् अहः – तद् उद्वंशीयम् अभवत्। - - -तत् स्वारं भवति। अभि सप्तमम् अह स्वरति। स्वारम् एव तद् भवति। स्वरेण श्वो भूते प्रतिपद्यन्ते। - जै.ब्रा. ३.१७२

तद् आहुर् यद् गायत्रं सप्तमम् अहस्, त्रैष्टुभम् अष्टमं, जागतं नवमम्, अथ कस्माद् एतद् गायत्रं सत् त्रिष्टुब्भिः प्रतिपद्यन्त इति. स ब्रूयात् – सर्वे ह्य् एवैतच् छन्दोमास् त्रिष्टुप्प्रतिपदो भवन्तीति। - जै.ब्रा. ३.१७५

*नवमम् अहः – उद्वंशीयम्। - - -तत् स्वारं भवति। अभि दशमम् अह स्वरति। स्वारम् एतद् भवति। स्वरेण श्वो भूते प्रतिपद्यन्ते। स यथा समात् समं संक्रामेद्, यथा प्राणेन प्राणं संदध्यात्, तादृक् तत्। - जै.ब्रा. ३.२७८

*- - -स्तोत्रियैर् वा इतो रेतो दधतो यन्त्य्, अनुरूपैर् अत्र प्रतिपद्यन्ते, प्र तज् जनयन्ति। - जै.ब्रा. ३.२७९

*प्रवर्ग्य -- ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्तादिति प्रतिपद्यते ब्रह्म वै बृहस्पतिर्ब्रह्मणैवैनं तद्भिषज्यति। - ऐ.ब्रा. १.१९

*अजैदग्निरसनद्वाजमिति मैत्रावरुण उपप्रैषं प्रतिपद्यते। तदाहुर्यदध्वर्युर्होतारमुपप्रेष्यत्यथ कस्मान् मैत्रावरुण उपप्रैषं प्रतिपद्यत इति। मनो वै यज्ञस्य मैत्रावरुणो, वाग्यज्ञस्य होता, मनसा वा इषिता वाग्वदति, यां ह्यन्यमना वाचं वदत्यसुर्या वै सा वागदेवजुष्टा तद्यन्मैत्रावरुण उपप्रैषं प्रतिपद्यते मनसैव तद्वाचमीरयति – ऐ.ब्रा. २.५

*प्रजापतौ वै स्वयं होतरि प्रातरनुवाकमनुवक्ष्यति सर्वा देवता आशंसन्त मामभि प्रतिपत्स्यति मामभीति स प्रजापतिरैक्षत यद्येकां देवतामादिष्टामभि प्रतिपत्स्यामीतरामेकेन देवता उपाप्ता भविष्यन्तीति स एतामृचमपश्यदापो रेवतीरित्यापो वै सर्वा देवता, रेवत्यः सर्वा देवताः, स एतयर्चा प्रातरनुवाकं प्रत्यपद्यत ताः सर्वा देवताः प्रामोदन्त मामभि प्रत्यपादि मामभीति। - ऐ.ब्रा. २.१६

*सोमपान सबसे पहले करने के लिए देवों में होड – त आजिमयुस्तेषामाजिं यतामभिसृष्टानां वायुर्मुखं प्रथमः प्रत्यपद्यताथेन्द्रोऽथ मित्रावरुणावथाश्विनौ।– ऐ.ब्रा. २.२५

*तदाहुर्यथा वाव स्तोत्रमेवं शस्त्रमाग्नेयीषु सामगा स्तुवते वायव्यया होता प्रतिपद्यते, कथमस्याऽऽग्नेय्योऽनुशस्ता भवन्तीति। - ऐ.ब्रा. ३.४

*अग्निर्वै देवानां होताऽऽसीत्, तं मृत्युर्बहिष्पवमानेऽसीदत्, सोऽनुष्टुभाऽऽज्यं प्रत्यपद्यत, मृत्युमेव तत्पर्यक्रामत्, तमाज्येऽसीदत्, स प्रउगेण प्रत्यपद्यत, मृत्युमेव तत्पर्यक्रामत्। तं माध्यन्दिने पवमानेऽसीद्त, सोऽनुष्टुभा मरुत्वतीयं प्रत्यपद्यत, मृत्युमेव तत्पर्यक्रामत्, तं माध्यंदिने बृहतीषु नाशक्नोत् सत्तुं, प्राणा वै बृहत्यः, प्राणानेव तन्नाशक्नोद् व्यवैतुं, तस्मान्मध्यंदिने होता बृहतीषु स्तोत्रियेणैव प्रतिपद्यते, प्राणा वै बृहत्यः, प्राणानेव तदभिप्रतिपद्यते। तं तृतीयपवमानेऽसीदत्, सोऽनुष्टुभा वैश्वदेवं प्रत्यपद्यत, मृत्युमेव तत्पर्यक्रामत। तं यज्ञायज्ञीयेऽसीदत्, स वैश्वानरीयेणाऽऽग्निमारुतं प्रत्यपद्यत, मृत्युमेव तत्पर्यक्रामद् – ऐ.ब्रा. ३.१४

*पवमानोक्थं वा एतद् यन्मरुत्वतीयं षट्सु वा अत्र गायत्रीषु स्तुवते, षट्सु बृहतीषु, तिसृषु त्रिष्टुप्सु, स वा एष त्रिच्छन्दाः, पञ्चदशो माध्यंदिनः पवमानः, तदाहुः कथं त एष त्रिच्छन्दाः पञ्चदशो माध्यंदिनः पवमानोऽनुशस्तो भवतीति। ये एव गायत्र्या उत्तरे प्रतिपदो यो गायत्रोऽनुचरस्ताभिरेवास्य गायत्र्योऽनुशस्ता भवन्ति – ऐ.ब्रा. ३.१७

आ त्वा रथम् इत्यस्मिन् मरुत्वतीयशस्त्रस्य प्रतिपद्रूपे तृचे प्रथमा ऋगनुष्टुप्, ये एवोत्तरे प्रतिपदः प्रतिपद् रूपे द्वे ऋचौ गायत्र्यौ विद्येते। -- - - -ताभिरेव पञ्चभिर्गायत्रीभिरस्य होतुः पवमानस्तोत्रगता गायत्र्योऽनुशस्ता भवन्ति - सायण

*ते देवा अब्रुवन्नियं वा इन्द्रस्य प्रिया जाया वावाता प्रासहा नामास्यामेवेच्छामहा इति, तथेति, तस्यामैच्छन्त, सैनानब्रवीत्, प्रातर्वः प्रतिवक्तास्मीति, तस्मात् स्त्रियः पत्याविच्छन्ते, तस्मादु स्त्र्यनुरात्रं पत्याविच्छते, तां प्रातरुपायन्, सैतदेव प्रत्यपद्यत। यद् वावान पुरुतमं पुराषाळा वृत्रहेन्द्रो नामान्यप्राः। - - - ऐ.ब्रा. ३.२२

*माध्यन्दिन सवन में मरुत्वतीय शस्त्र में गायत्री द्वारा अपने ८ अक्षरों द्वारा त्रिष्टुप के ३ अक्षरों के साथ मिलाना – सा तथेत्यब्रवीत् त्रिष्टुप् तां वै मैतैरष्टाभिरक्षरैरुपसंधेहीति, तथेति, तामुपसमदधाद्, एतद्वै तद्गायत्र्यै मध्यंदिने यन्मरुत्वतीयस्योत्तरे प्रतिपदो यश्चानुचरः, सैकादशाक्षरा भूत्वा माध्यंदिनं सवनमुदयच्छत्। - ऐ.ब्रा. ३.२८

*वैश्वानरीयेण(वैश्वानराय पृथुपाजसे विपः इति, ऋ. ३.३.१-११)ऽऽग्निमारुतं प्रतिपद्यते, वैश्वानरो वा एतद् रेतः सिक्तं प्राच्यावयत्, तस्माद् वैश्वानरीयेणाऽऽग्निमारुतं प्रतिपद्यते। -- ऐ.ब्रा. ३.३५

*तीन सवनों में वाक् का स्वरूप – यदा वा एष प्रातरुदेत्यथ मन्द्रं तपति, तस्मान्मन्द्रया वाचा प्रातःसवने शंसेद्, - - - -अथ यदाभितरामेत्यथ बलिष्ठतमं तपति तस्माद् बलिष्ठतमया वाचा तृतीयसवने शंसेद्, एवं शंसेद् यदि वाच ईशीत; वाग्घि शस्त्रं; यया तु वाचोत्तरोत्तरिण्योत्सहेत समापनाय, तया प्रतिपद्येतैतत्सुशस्ततममिव भवति। - ऐ.ब्रा. ३.४४

*अतिरात्रे प्रथमपर्याये होतुः शस्त्रं – पान्त मा वो अन्धस इत्यन्धस्वत्याऽनुष्टुभा रात्रीं प्रतिपद्यते।आनुष्टुभी वै रात्रिरेतद् रात्रिरूपम्। - ऐ.ब्रा. ४.६

*सूर्या सावित्री के विवाह में आश्विन् शस्त्र के ग्रहण हेतु देवों में होड – तस्मिन् देवा न समजानत, -- ममेदमस्तु ममेदमस्त्विति, ते संजानाना अब्रुवन्नाजिमस्यायामहै, स यो न उज्जेष्यति, तस्येदं भविष्यतीति; तेऽग्नेरेवाधि गृहपतेरादित्यं काष्ठामकुर्वत, तस्मादाग्नेयी प्रतिपद्भवत्याश्विनस्य अग्निर्होता गृहपतिः स राजा इति(ऋ. ६.१५.१३)। तद्धैक आहुः – अग्निं मन्ये पितरमग्निमापिम् इत्येतया प्रतिपद्यत। दिवि शुक्रं यजतं सूर्यस्य इति प्रथमयैव ऋचा काष्ठामाप्नोतीति। तत्तन्नादृत्यम्, य एनं तत्र ब्रूयाद् अग्निमिति वै प्रत्यपाद्यग्निमापत्स्यतीति, शश्वत् तथा स्यात्। तस्माद् अग्निर्होता गृहपतिः स राजा इत्येतयैव प्रतिपद्येत – ऐ.ब्रा. ४.७

*तासां वै देवतानामाजिं धावन्तीनामभिसृष्टानामग्निर्मुखं प्रथमः प्रत्यपद्यत, तमश्विनावन्वागच्छतां - - - ऐ.ब्रा. ४.८

*आश्विन् शस्त्र – तदाहु उदुत्यं जातवेदसम् इति(ऋ. १.५०.१) सौर्याणि प्रतिपद्येतेति। तत्तन्नादृत्यम्; यथैव गत्वा काष्ठामपराध्नुयात्, तादृक् तत्। सूर्यो नो दिवस्पात्विति (ऋ. १०.१५८.१-५) एतेनैव प्रतिपद्येत; यथैव गत्वा काष्ठामभिपद्येत तादृक् तत्। उदु त्यं जातवेदसम् इति द्वितीयं शंसति। - ऐ.ब्रा. ४.९

*आ त्वा रथं यथोतये(ऋ. ८.६८.१-३), इदं वसो सुतमन्धः इति(ऋ. ८.२.१-३) मरुत्वतीयस्य प्रतिपदनुचरौ, रथवच्च पिबवच्च प्रथमेऽहनि प्रथमस्याह्नो रूपम्। - ऐ.ब्रा. ४.२९

*द्वादशाहक्रतौ नवरात्रे प्रथममहः – तत्सवितुर्वृणीमहे(ऋ. ५.८२.१-३) ऽद्या नो देव सवितरिति वैश्वदेवस्य प्रतिपदनुचरौ राथन्तरेऽहनि प्रथमेऽहनि प्रथमस्याह्नो रूपम्। - ऐ.ब्रा. ४.३०

*विश्वानरस्य वस्पतिम्(ऋ. ८.६८.४-६), इन्द्र इत्सोमपा एकः इति(ऋ.८.२.४-६) इति मरुत्वतीयस्य प्रतिपदनुचरौ; वृधन्वच्चान्तर्वच्च द्वितीयेऽहनि द्वितीयस्याह्नो रूपम्। - ऐ.ब्रा. ४.३१

*विश्वो देवस्य नेतुस्(ऋ. ५.५०.१) तत्सवितुर्वरेण्यम्(ऋ. ३.६२.१०-११), आ विश्वदेवं सत्पतिमिति(ऋ. ५.८२.७-९) वैश्वदेवस्य प्रतिपदनुचरौ बार्हतेऽहनि द्वितीयेऽहनि द्वितीयस्याह्नो रूपम्। - ऐ.ब्रा. ४.३२

*तं तमिद्राधसे महे(ऋ. ९.२२.६-८), त्रय इन्द्रस्य सोमा इति(ऋ. ८.२.७-९) मरुत्वतीयस्य प्रतिपदनुचरौ, निनृत्तवत् त्रिवत् तृतीयेऽहनि तृतीयस्याह्नो रूपम्। - ऐ.ब्रा. ५.१

*तत्सवितुर्वृणीमहे(ऋ.५.८२.१-३) ऽद्या नो देव सवितरिति(ऋ. ५.८२.४-६) वैश्वदेवस्य प्रतिपदनुचरौ, राथन्तरेऽहनि तृतीयेऽहनि तृतीयस्याह्नो रूपम्। - ऐ.ब्रा. ५.२

*तं त्वा यज्ञेभिरीमह इति(ऋ. ८.६८.१०) मरुत्वतीयस्य प्रतिपदीमह इत्यभ्यायाम्यमिवैतदहस्तेन चतुर्थस्याह्नो रूपम्। - ऐ.ब्रा. ५.४

*विश्वो देवस्य नेतुस्(ऋ. ५.५०.१), तत्सवितर्वरेण्यम्(ऋ. ३.६२.१०-११) आ विश्वदेवं सत्पतिमिति(ऋ. ५.८२.७-९) वैश्वदेवस्य प्रतिपदनुचरौ बार्हतेऽहनि चतुर्थेऽहनि चतुर्थस्याह्नो रूपम्। - ऐ.ब्रा. ५.५

*यत्पाञ्चजन्यया विशेति (ऋ. ८.६३.७) मरुत्वतीयस्य प्रतिपत्पाञ्चजन्ययेति पञ्चमेऽहनि पञ्चमस्याह्नो रूपम्। - ऐ.ब्रा. ५.६

*तत्सवितुर्वृणीमहे(ऋ. ५.८२.१-३) ऽद्या नो देव सवितरिति(ऋ. ५.८२.४-६) वैश्वदेवस्य प्रतिपदनुचरौ राथन्तरेऽहनि पञ्चमेऽहनि पञ्चमस्याह्नो रूपम्। - ऐ.ब्रा. ५.८

*स पूर्व्यो महानामिति(ऋ. ८.६३.१) मरुत्वतीयस्य प्रतिपदन्तो वै महदन्तः षष्ठमहः षष्ठेऽहनि षष्ठस्याह्नो रूपम्। - ऐ.ब्रा. ५.१२

*अभि त्यं देवं सवितारमोण्योरिति (वा.सं. ४.२५, अथर्व ११.४.२) वैश्वदेवस्य प्रतिपदतिच्छन्दाः षष्ठेऽहनि षष्ठस्याह्नो रूपम्। तत्सवितुर्वरेण्यं दोषो आगादित्यनुचरो - -ऐ.ब्रा. ५.१३

*अग्निमारुतशस्त्रस्य प्रतिपत् – अहश्च कृष्णमहरर्जुनं चेति(ऋ. ६.९) अग्निमारुतस्य प्रतिपदहश्चाहश्चेति पुनरावृत्तं पुनर्निनृत्तं षष्ठेऽहनि षष्ठस्याह्नो रूपम्। - ऐ.ब्रा. ५.१५

*तत्सवितुर्वृणीमहे(ऋ. ५.८२.१-३) ऽद्या नो देव सवितरिति(ऋ. ५.८२.४-६) वैश्वदेवस्य प्रतिपदनुचरौ राथंतरेऽहनि सप्तमेऽहनि सप्तमस्याह्नो रूपम्। - ऐ.ब्रा. ५.१७

*विश्वो देवस्य नेतुस्(ऋ. ५.५०.१) तत्सवितुर्वरेण्यं(ऋ. ३.६२.१०,११), आ विश्वदेवं सत्पतिमिति(ऋ. ५.८२.७-९) वैश्वदेवस्य प्रतिपदनुचरौ बार्हतेऽहन्यष्टमेऽहन्ष्टमस्याह्नो रूपम्। - ऐ.ब्रा. ५.१९

*तत्सवितुर्वृणीमहे(ऋ. ५.८२.१-३) ऽद्या नो देव सवितरिति(ऋ. ५.८२.४-६) वैश्वदेवस्य प्रतिपदनुचरौ राथंतरेऽहनि नवमेऽहनि नवमस्याह्नो रूपम्। - ऐ.ब्रा. ५.२१

*अपरिमिताभिरभिष्टुयादपरिमितो वै प्रजापतिः, प्रजापतेर्वा एषा होत्रा यद् ग्रावस्तोत्रीया- - - - - ।तदाहुर्यदध्वर्युरेवान्यानृत्विजः संप्रेष्यत्यथ कस्मादेष एतामसंप्रेषितः प्रतिपद्यत इति; मनो वै ग्रावस्तोत्रीयाऽसंप्रेषितं वा इदं मनस्तस्मादेष एतामसंप्रेषितः प्रतिपद्यते। - ऐ.ब्रा. ६.२

*अहीन क्रतु – ते वै देवाश्च ऋषयश्चाद्रियन्त समानेन यज्ञं संतनवामेति त एतत् समानं यज्ञस्यापश्यन्, समानान् प्रगाथान्, समानीः प्रतिपदः, समानानि सूक्तानि। - ऐ.ब्रा. ६.१७

*ऐतशो ह वै मुनिरग्नेरायुर्ददर्श यज्ञस्यायातयाममिति हैक आहुः, सोऽब्रवीत् पुत्रान् – पुत्रका अग्नेरायुरदर्शं, तदभिलपिष्यामि, यत्किंच वदामि, तन्मे मा परिगातेति, स प्रत्यपद्यतैता अश्वा आप्लवन्ते, प्रतीपं प्रातिसत्वनमिति(शौ.अ. २०.१२९.१)। - ऐ.ब्रा. ६.३३

*तदाहुर्यस्य गार्हपत्याहवनीयावन्तरेणानो वा रथो वा श्वा वा प्रतिपद्येत, का तत्र प्रायश्चित्तिरिति? नैनन्मनसि कुर्यादित्याहुरात्मन्यस्य हि ता भवन्तीति, तच्चेन्मनसि कुर्वीत, गार्हपत्यादविच्छिन्नामुदकधारां हरेत्तन्तुं तन्वन् रजसो भानुमन्विहीत्याहवनीयात्, सा तत्र प्रायश्चित्तिः – ऐ.ब्रा. ७.१२

*मरुत्वतीयं -- आ त्वा रथं यथोतय(ऋ. ८.६८.१) इदं वसो सुतमन्ध इति(ऋ.८.२.१) राथंतरो प्रतिपद् रथंतरोऽनुचरः, पवमानोक्थं वा एतद् यन् मरुत्वतीयं, पवमाने वा अत्र रथंतरं कुर्वन्ति; बृहत्पृष्ठं सवीवधतायै, तदिदं रथंतरं स्तुतमाभ्यां प्रतिपदनुचराभ्यामनुशंसति – ऐ.ब्रा. ८.१

*ऐन्द्र महाभिषेक के पश्चात् दान – शतं तुभ्यं शतं तुभ्यमिति स्मैव प्रताम्यति। सहस्रं तुभ्यमित्युक्त्वा प्राणान् स्म प्रतिपद्यत इति। - ऐ.ब्रा. ८.२२

*प्रायणीयमहः – पवन्ते वाजसातये सोमाः सहस्रपाजस इति सहस्रवती प्रतिपत्कार्य्या। -- - - अथो खल्वाहुः पवस्व वाचो अग्रिय इत्येव कार्यां मुखं वा एतत् संवत्सरस्य यद्वाचोग्रम्मुखत एव तत् संवत्सरमारभन्ते। - -  तां.ब्रा. ४.२.१५

*विषुवान् अह—वायो शुक्रो अयामि त इति शुक्रवती प्रतिपद्भवत्यादित्यस्य रूपं। वायुर्व्वा एतन्देवतानामानशेऽनुष्टुप् छन्दसां यदतोन्या प्रतिपत् स्यात्प्रदहेत्। यन्ति वा एते प्राणादित्याहुर्य्ये गायत्र्याः प्रतिपदो यन्तीति यद्वायव्या भवन्ति तेन प्राणान्न यन्ति प्राणो हि वायुः। - तां.ब्रा. ४.६.६

*उपास्मै गायता नर इति ग्रामकामाय प्रतिपदं कुर्य्यात्।(१)। नरो वै देवानां ग्रामो ग्राममेवास्मा उपाकः। उप वा अन्नमन्नमेवास्मा उपाकः। उपोषु जातमप्तुरमिति प्रजाकामाय प्रतिपदं कुर्य्यात्।(४)। उप वै प्रजा तां जातमित्येवाजीजनत्। स नः पवस्व शङ्गवः इति प्रतिपदं कुर्यात्।(६)। या ँ समां महादेवः पशून् हन्यात्स नः पवस्व शङ्गव इति चतुष्पदे भेषजं करोति। शञ्जनायेति द्विपदे शमर्व्वत इत्येकशफाय। विषेण व ता ँ समामोषधयोक्ता भवन्ति या ँ समाम्महादेवः पशून् हन्ति यच्छ ँ राजन्नोषधीभ्य इत्याहौषधीरेवास्मै स्वदयत्युभय्योऽस्मै स्वदिताः पच्यन्तेऽकृष्टपच्याश्च कृष्टपच्याश्च। पवस्व वाचो अग्रिय इति प्रतिपदं कुर्य्याद्यं कामयेत समानाना ँ श्रेष्ठः स्यादिति।(१०)। पवस्व वाचो अग्रिय इत्यग्रमेवैनं परिणयति। श्रीर्व्वै वाचोऽग्र ँ श्रियवामेस्मिन् दधाति। एते असृग्रमिन्दव इति बहुभ्यः प्रतिपदं कुर्य्यात्।(१३)। एत इति सर्वानेवैनानृद्ध्यै भूत्या अभिवदति। एत इति वै प्रजापतिर्द्देवानसृजतासृग्रमिति मनुष्यानिन्दव इति पितॄ ँस्तिरः पवित्र इति ग्रहानाशव इति स्तोत्रं विश्वानीति शस्त्रमभि सौभगेत्यन्याः प्रजाः। यदेत इति तस्माद्यावन्त एवाग्रे देवास्तावन्त इदानीं। सर्व्वान्वृद्धिमार्ध्रुव ँ स्थितेव ह्येषा व्याहृतिः। यदसृग्रमिति तस्मान्मनुष्याः श्वः श्वः सृज्यन्ते। यदिन्दव इतीन्दव इव हि पितरः। मन इव। यान्ताः प्राजाः सृष्टा ऋद्धिमार्ध्नुव ँस्तामृध्नुवन्ति येषामेवं विद्वानेतां प्रतिपदं करोति। - - - -व्यृद्धं वा एतदपशव्यं यत्प्रातःसवनमनिड ँ हि यदिडामस्मभ्य ँ संयतमित्याह प्रातःसवनमेव तदिडावत्पशुमत्करोति। दविद्युतत्यारुचेति व्राताय प्रतिपदं कुर्य्यात्।(२४)। दविद्युतत्यारुचेति वै गायत्र्या रूपं परिष्टोभन्त्येति त्रिष्टुभः कृपेत्यनुष्टुभः सोमाः शुक्रा गवाशिर इति जगत्याः सर्वेषां वा एषा छन्दसा ँ रूपं छन्दा ँसीव खलु वै व्रातोपदेषा प्रतिपद्भवति स्वेनैवैना ँ स्तद्रूपेण समर्द्धयति। वृद्धा वा एत इन्द्रियेण वीर्य्येण यद्व्रात इन्द्रियं वीर्य्यं छन्दा ँसीन्द्रियेणैवैनान्वीर्य्येण समर्द्धयति। - तां.ब्रा. ६.९.१-२६

*अग्न आयू ँषि पवस इति प्रतिपदं कुर्य्याद्येषां दीक्षितानां प्रमीयेत।(१)। अपूता इव वा एते येषां दीक्षितानां प्रमीयते यदेषाग्निपावमानी प्रतिपद्भवत्यग्निरेवैनान्निष्टपति पवमानः पुनाति। यदायू ँषीत्याह य एव जीवन्ति तेष्वायुर्द्दधाति। आ नो मित्रावरुणेति ज्योगामयाविने प्रतिपदं कुर्य्यात्।(४)। अपक्रान्तौ वा एतस्य प्राणापानौ यस्य ज्योगामयति प्राणापानौ मित्रावरुणौ प्राणापानावेवास्मिन्दधाति। अपघ्नन् पवते मृधोपसोमो अराव्न इत्यनृतमभिशस्यमानाय प्रतिपदं कुर्य्यात्।(६)। अरावाणो वा एते येऽनृतमभिश ँसन्ति तानेवास्मादपहन्ति। गच्छन्निन्द्रस्य निष्कृतमिति पूतमेवैनं यज्ञियमिन्द्रस्य निष्कृतं गमयति। वृषा पवस्व धारयेति राजन्याय प्रतिपदं कुर्य्यात् वृषा वै राजन्यो वृषाणमेवैनं करोति।(९)। मरुत्वते च मत्सर इति मरुतो वै देवानां विश विशमेवास्मा अनु नियुनक्त्यनपक्रामुकास्माद्विड् भवति। विश्वा दधान ओजसेत्योजसैवास्मै वीर्य्येण विशं परस्तात्परिगृह्णात्यनपक्रामुकास्माद्विड् भवति। पवस्वेन्दो वृषासुत इति प्रतिपदं कुर्य्याद्यः कामयेत जने म ऋध्येतेति।(१२)। कृधीनो यशसो जन इति जनतायामेवास्मा ऋध्यते। युव ँ हि स्थः स्वः पती इति द्वाभ्यां प्रतिपदं कुर्य्यात्समावद्भाजावेवैनौ यज्ञस्य करोत्युनौ यज्ञयशसेनार्पयति। प्रास्य धारा अक्षरन्निति वृष्टिकामाय प्रतिपदं कुर्य्यात्।(१५)। प्रास्य धारा अक्षरन्निति दिवो वृष्टिञ्च्यावयति वृष्णः सुतस्यौजस इत्यन्तरिक्षात्। देवा ँ अनु प्रभूषत इत्यस्मिन् लोके प्रतिष्ठापयति। ओजसा वै एतद्वीर्य्येण प्रदीयते यदप्रत्तं भवति। यद्वृष्णः सुतस्यौजस इत्याहौजसैवास्मै वीर्य्येण दिवो वृष्टिं प्रयच्छति। तया पवस्व धारया यथा गाव इहागमञ्जन्यास उप नो गृहमिति प्रतिपदं कुर्य्याद्यः कामयेतोप मा जन्या गावो नमेयुर्विन्देत मे जन्या गा राष्ट्रमिति यदेषा प्रतिपद्भवत्युपैनञ्जन्या गावो नमन्ति विन्दतेऽस्य जन्या गा राष्ट्रं। - तां.ब्रा. ६.१०.१-१९

*सत्रमध्ये दीक्षितानां मरणे कर्त्तव्यं – अग्न आयूंषि पवस इति प्रतिपत्कार्य्या य एव जीवन्ति तेष्वायुर्दधाति। - तां.ब्रा. ९.८.१२

*पृष्ठ्यस्य द्वितीयस्याह्नः स्तोमक्लृप्ति, तत्र बहिष्पवमानस्य प्रतिपत् – पवस्व वाचो अग्रिय इति द्वितीयस्याह्नः प्रतिपद्भवति। पवस्वेति वै राथन्तर ँ रूपमग्रिय इति बार्हतमुभे रूपे समारभते द्विरात्रस्याविस्र ँसाय - तां.ब्रा. ११.६.१

*अथ सर्वा ह वै देवता होतारं प्रातरनुवाकमनुवक्ष्यन्तमाशंसमानाः प्रत्युपतिष्ठन्ते मया प्रतिपत्स्यते मया प्रतिपत्स्यत इति स यदेकां देवतामादिश्य प्रतिपद्येताथेतराभ्यो देवताभ्यो वृश्चेतानिरुक्तया प्रतिपद्यते तेनो न कस्यैचन देवताया आवृश्चत आपो रेवतीरिति प्रतिपद्यत आपो वै सर्वा देवताः – शां.ब्रा. ११.४

*आ त्वा रथं यथोतय इत्यनुष्टुभा मरुत्वतीयं प्रतिपद्यते पवमानोक्थं वा एतद्यन्मरुत्वतीयमनुष्टुप्सोमस्य च्छन्द - - -शां.ब्रा. १५.२

*अथैतदिन्द्रस्यैव निष्केवल्यंतन्निष्केवल्यस्य निष्केवल्यत्वमथ यद्बृहत्या प्रतिपद्यते बार्हतो वा एष य एष तपति तदेनं स्वेन रूपेण समर्धयति – शां.ब्रा. १५.४

*तं(मृत्युं) मरुत्वतीयेन न्यकरोदन्यत्रैव स्तोत्रियादथ वै निष्केवल्ये स्तोत्रियेणैव प्रतिपद्यते – शां.ब्रा. १५.५

*तद्यदादित्यग्रहेण तृतीयसवनं प्रतिपद्यते स्वयैव तद्देवतया प्रतिपद्यतेऽथोऽधीरसं वा एतत्सवनं यत्तृतीयसवनमथैष सरसो ग्रहो यदादित्यग्रहः – शां.ब्रा. १६.१

*सवित्रा वैश्वदेवं प्रतिपद्यते सवितृप्रसूता वै देवास्तृतीयसवनं समभरंस्तस्मात्प्रतिपदनुचरौ सूक्तमिति सावित्राणि भवन्ति तत्सवितुर्वृणीमह इत्यनुष्टुभा वैश्वदेवं प्रतिपद्यते – शां.ब्रा. १६.३

*अग्निना वै प्रतिपद्यते यदाज्येनेन्द्रमनुसंतिष्ठत – शां.ब्रा. १६.९

*तदाहुर्यद्बृहत्यायतनानि पृष्ठानि भवन्त्यथ कस्मात्त्रिष्टुभा प्रतिपद्यत इति - - -शां.ब्रा. १८.२

*शतायुर्वै पुरुषः शतपर्वा शतवीर्यः शतेन्द्रिय ुप य एकशततमः स आत्मा तदेतदङ्गिरसामयनं स एनेनायनेन प्रतिपद्यतेऽङ्गिरसां सलोकतां सायुज्यमाप्नोति – शां.ब्रा. १८.१०

*तं त्वा यज्ञेभिरीमह इति यज्ञवत्या मरुत्वतीयं प्रतिपद्यते पुनरारम्भ्यो वै चतुर्थेऽहन्यज्ञो - - शां.ब्रा. २२.७

*अभित्यं देवं सवितारमोण्योः कविक्रतुमित्यतिच्छन्दसा वैश्वदेवं प्रतिपद्यत आतिच्छन्दसं वै षष्ठमहः – शां.ब्रा. २३.८

*अग्निं मन्ये पितरमग्निमापिमित्येतया तदहर्होता प्रातरनुवाकं प्रतिपद्यत – शां.ब्रा. २५.१०

*अभि त्यं देवं सवितारमोण्योः कविक्रतुमित्यतिच्छन्दसा वैश्वदेवं प्रतिपद्यते – शां.ब्रा. २७.२

*तद्यदादित्यग्रहेण तृतीयसवनं प्रतिपद्यते स्वयैव तद्देवतया प्रतिपद्यतेऽथोऽधीतरसं वा एतत्सवनं यत्तृतीयसवनम् – शां.ब्रा. ३०.१

प्रथम लेखन – २६-१२-२०११ई.(पौष शुक्ल द्वितीया, विक्रम संवत् २०६८)